​​There once lived a childless couple in a small town near Kanpur. One day a wandering sadhu came to their house and asked for food. The lady of the house welcomed him with great respect and gave him food and water. The sage blessed her with two divine sons. The first was born in 1873 and the second in 1875. Many incidents happened during the childhood of these two blessed children which could be the subject of a book in itself, and may well be in the future, but we will take up the story at the point where they were sixteen & fourteen years old respectively.


Everyday, on their way to school, both boys used to pass by the cottage of a teacher of the Arabic & Persian languages. As a matter of fact this teacher was a Great Sufi Saint, who in the outer world he took on the appearance of an ordinary humble language teacher. This great saint received an instruction from his own Guru (Master) that two children would come to him and he must adopt them for spiritual training. Both of these children, although ignorant of the teacher’s spiritual status, used to greet him everyday. One day, as they were on their way back home, it started raining. On reaching the cottage of the saint, he came out and insisted that they come in until the rain stopped. They agreed and went inside. The Saint covered both boys with a blanket and they soon fell into a deep sleep. When they awoke, the world had changed for them. Both young men were given gifts of tremendous spiritual power. Such great powers take lifetimes to gain, and are beyond what most mortals are ever able to achieve, but both these young men received this energy in one stroke.


The language teacher was none other than the revered sufi saint, Fazl Ahmad Khan (lovingly called Huzoor Maharaj) and the young men were Mahatma Raghubar Dayal Ji (also known as Chacha Ji) and his elder brother Mahatma Ram Chandra Ji (also known as Lala Ji). Both these young men became regular visitors to the saint’s cottage, and over time they were given the training that enabled them to be transformed into great spiritual teachers in their own right.


At the time of leaving this world for his heavenly abode, Huzoor Maharaj called both Chacha Ji and Lala ji to him and instructed them to go to another disciple of his Guru for further training. This new teacher was the great sufi saint Abdul Ghani khan. He happily accepted both young men as his disciples and kept them in his guidance for many years.


As time passed, Chacha Ji got married and had a son named Radha Mohan Lal ji, who also became a great teacher and was himself initiated into the great line of Sufi Saints by the revered Abdul Ghani Khan. His eldest son, Sri Ravindra Nath, was also initiated into this path by the revered Abdul Ghani Khan Maharaj. We are so lucky that he is still, to this very day, teaching and transmitting the powerful spiritual energy of this great lineage, though he left his body on 7th June, 1947.



   36-2 - हजरत जनाब महात्मा रघुबर दयाल जी साहब

                                     (कानपुर)
 
आपकी समाधि कानपुर में है ।

गूगल मैप कोर्डिनेट्स : 26°23'16.7"N 80°18'37.8"E

महात्मा हरनारायण जी सक्सेना की पुस्तक 'नक्शबंदिया सिलसिले के बुजुर्गान व उनकी समाधियां' से साभार

आप परम सन्त सद्गुरु श्रीमान लाला जी महाराज के छोटे भाई थे । आपका जन्म 7 अक्टूबर सर 1875 को हुआ । आपका लालन-पालन भी श्रीमान लालाजी महाराज के साथ साथ अपने पिता श्रीमान हरबंस राय चौधरी साहब की ही देख रेख में हुआ । पिता के स्वर्गवास के पश्चात् आपने बड़े भ्राता श्रीमान लालाजी महाराज को ही अपने पिता के स्थान पर मान कर उनकी आज्ञा तथा इच्छा का अनुसरण इस प्रकार किया कि जिसका उदाहरण इस युग में मिलना कठिन ही नहीं असम्भव है । हाँ यदि हम भगवान राम के प्रति भक्त-श्रेष्ठ, भरत जी का उदाहरण प्रस्तुत करें तो बहुत कुछ ठीक बैठ सकता है ।


बचपन में आपका लालन-पालन भी बड़े ठाट बाट से हुआ परन्तु पिता के स्वर्गवास के पश्चात् आपको भी उन्हीं कठिनाइयों का सामना करना पड़ा जिनका हमारे श्रीमान लालाजी महाराज को । परन्तु आपकी यह विशेषता थी कि आप पूर्णरूप से श्रीमान लालाजी महाराज पर आश्रित ही नहीं अपितु समर्पित अर्थात् न्योछावर थे । उर्दू भाषा की उच्च शिक्षा तथा अँग्रेज़ी की थोड़ी शिक्षा प्राप्त करके आपने अपना प्रारम्भिक कौटुम्बिक जीवन असिस्टेन्ट स्टेशन मास्टर तार बाबू के पद से प्रारम्भ किया । एक अंग्रेज इंस्पेक्टर उन दिनों गालियाँ बहुत देता था । इनको भी एक दिन उसने गालियाँ सुनाई तो थोड़ी देर तो आप सुनते रहे फिर उसको कमर पकड़ कर जमीन पर पटक दिया और सीने पर चढ़ बैठे । लोगों ने बीच-बचाव किया और वह इंस्पेक्टर चुपचाप चला गया । इन पर कोई केस बने उसके पहले ही आप इस्तीफा देकर नौकरी छोड़ आये ।


फिर आपने अपना जीवन ग्राम अलीगढ़ जिला फतेहगढ़ में व्यतीत किया । एक प्रतिष्ठित वकील श्रीमान मुन्शी चिम्मनलाल साहब के पास आप कार्य करते रहे तथा श्रीमान लालाजी महाराज के आदेशानुसार उन्हीं वकील साहब के पास अपना आध्यात्मिक अभ्यास भी करते रहे ।


अलीगढ़ ग्राम में तहसील का कार्यालय था और यह स्थान फतेहगढ़ से लगभग छः मील उत्तर दिशा में गंगा जी के पार गंगा, रामगंगा के बीच में था । फतेहगढ़ आने जाने के लिये गंगा जी नौका द्वारा ही पार करनी पड़ती थी । आपके ज्येष्ठ सुपुत्र महात्मा बाबू बृजमोहन लाल ने फतेहगढ़ में श्रीमान लाला जी महाराज के संरक्षण तथा देखरेख में विद्याध्ययन किया व सन् 1923 में हाईस्कूल की परीक्षा पास करके पुलिस विभाग में नौकरी कर ली । जब इनकी पोस्टिंग कानपुर हुई तो फिर श्रीमान चच्चाजी महाराज सपरिवार कानपुर आकर रहने लगे ।


आपके द्वितीय सुपुत्र महात्मा राधा मोहन लाल ने भी फतेहगढ़ में श्रीमान लाला जी महाराज के पास रहकर हाई स्कूल तक पढ़ा और सन् 1925 में हाईस्कूल परीक्षा पास करके कानपुर में जज साहब के कार्यालय में नौकरी कर ली । छोटे सुपुत्र महात्मा श्री ज्योतिन्द्र मोहन लाल उस समय छोटे थे तथा अध्ययन कर रहे थे, कानपुर आकर पढ़ने लगे ।


आपका अलीगढ़ निवास कठोर तपस्या का समय था । श्रीमान महात्मा श्री चिम्मनलाल साहब के निर्देशानुसार आपने कठिन तपस्या की । यहाँ तक कि कई-कई दिन निराहार रह कर तथा रात-रात भर जाग कर आध्यात्मिक अभ्यास की पराकाष्ठा पर पहुँचे । श्रीमान लालाजी महाराज ने आपकी इस कठोर तपस्या तथा आध्यात्मिक तीव्र प्रगति से प्रसन्न होकर अलीगढ़ में ही आपको परम संत सद्गुरु की पदवी प्रदान की ।


श्रीमान लालाजी महाराज के प्रति आपके आदर तथा प्रेम के उत्तर में, जिस का वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं, आपके लिए श्रीमान लाला जी महाराज का प्रेम भी अगाध था । वे अधिक समय तक उन्हें देखे बिना रह नहीं सकते थे । अतः लगभग मास में एक दो बार या तो श्रीमान लालाजी महाराज इनके पास पहुँचते थे या आप उनकी सेवा में उपस्थित हो जाते थे ।


फतेहगढ़ में एक बार आप इतने अधिक अस्वस्थ हो गये कि आपके जीवित रहने की आशा भी क्षीण होने लगी । उस समय श्रीमान लालाजी महाराज की चिन्ता का ठिकाना न रहा । अपने गुरुदेव जो उस समय शरीर में नहीं थे बहुत कुछ अनुनय विनय की । आपकी विनती स्वीकार कर ली गई । कहते हैं कि श्रीमान लालाजी महाराज ने अपनी आयु का एक विशेष भाग आपको देना चाहा था । जिसकी स्वीकृति मिल गई । श्रीमान् लालाजी महाराज तो अपनी आयु के 59 वर्ष भी पूरे नहीं कर सके तथा निर्वाण प्राप्त किया । परन्तु श्रीमान चच्चा महाराज आपके पश्चात् लगभग 16 वर्ष तक आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्व साधारण की सेवा करते रहे । श्रीमान लालाजी महाराज के निर्वाण के पश्चात् का आपका जीवन पूर्ण रूप से श्रीमान लालाजी महाराज के जीवन के अनुरूप रहा, तथा वे श्रीमान लालाजी महाराज का ही आध्यात्मिक कार्य जीवन पर्यन्त करते रहे । मुझे पूज्य भाई साहब परम संत डाक्टर श्याम लाल जी गाजियाबाद निवासी ने बतलाया था कि पहले श्रीमान चच्चाजी महाराज फ़रमाया करते थे कि उनकी वापसी (अर्थात् निर्वाण) पहले होगी और श्रीमान लालाजी महाराज की बाद में होगी । जब सन् 1931 में श्रीमान लाला जी महाराज की वापसी हो गई तब इन्हीं श्रीमान डाक्टर साहब ने श्रीमान चच्चाजी महाराज से फिर एक बार प्रश्न किया कि आप तो  फ़रमाते थे आपकी वापसी पहले होगी और श्रीमान लालाजी महाराज की बाद में ? तो आपने बतलाया कि श्रीमान लालाजी महाराज ने अपनी आयु का एक भाग उनको दिया है इस कारण ऐसा हुआ ।


सर 1924 के पश्चात् का समय आपका कानपुर नगर में ही बीता । आरम्भ में आपने एक छोटा सा मकान कर्नलगंज खटिकाना में लिया । कुछ वर्ष पश्चात् जब आर्य नगर बसाया जा रहा था तब वहाँ आपके नाम कई प्लाट कर दिये गए । जिनमें से एक आपने अपने लिए रखकर बाकी अपने पास आने वाले अभ्यासियों को बाँट दिए । आपके रहने के लिए यहाँ एक मकान बन गया जिसका नाम 'रघुबर भवन' तथा उस मार्ग का नाम 'सन्त शिरोमणि महात्मा श्री रघुबरदयाल मार्ग' रखा गया ।


जहां तक हमारे श्रीमान चच्चा जी महाराज का प्रश्न है हमने स्वयं देखा है कि वे पूज्य माता जी (धर्म पत्नी श्रीमान लालाजी महाराज के सामने सदा हाथ बांध कर खड़े होते थे तथा उनकी प्रत्येक आज्ञा को बहुत अच्छा कह कर शिरोधार्य करते थे ।


आप अपने गुरुदेव की याद में तथा आध्यात्मिक ध्यान में हर समय खोये हुए रहते थे तथा सांसारिक भावनाओं को सदा ही भूले हुए रहते थे । गृहस्थ संचालन का कार्य आपकी धर्म पत्नी तथा आपके सुपुत्र श्रीमान महात्मा राधामोहनलाल जी ही देखते और करते थे । आप पूर्णतया जीवन-मुक्त थे । ऐसी दशा होते हुए भी आप पूर्ण व्यवहार कुशल थे । ब्राह्मण कुल के कोई भी महानुभाव आते तो आप उन्हें सदा ही 'पंडित जी पालागन' कह कर सम्बोधित करते थे । छोटे बड़े सबसे उनके अनुरूप ही वार्ता करना आपकी विशेषता थी ।


अध्यात्म के गूढ़ तत्वों को भी इतनी सरल भाषा में समझा देते कि बड़े-बड़े विद्वान आश्चर्यचकित रह जाते । अधिकारियों को अध्यात्म की ऊंची से ऊंची दशा पर अपनी शक्ति से पहुंचा कर समझा देते कि यह अमुक स्थान तथा अवस्था है इसे समझ लीजिए । आप के दरबार में एक बार भी यदि कोई पहुँचा तो अध्यात्म का संस्कार लिये बिना नहीं लौटा ।


मुझे अपने विद्यार्थी जीवन (1925-1930) में कई वर्ष श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । इसके पश्चात् भी उनकी सेवा में समय-समय पर जाता रहा । परन्तु श्रीमान लालाजी महाराज की सेवा में रहने का अधिक सुअवसर मुझे दुर्भाग्यवश नहीं मिला । गुरुदेव श्रीमान लालाजी महाराज के सन् 1931 में निर्वाण के बाद लगभग 16 वर्ष तक आप सारे सत्संग परिवार का अध्यात्म से सिंचन करते रहे तथा मेरा सम्पर्क आप से ही पूर्ण रूप से बना रहा । मुझे इस मार्ग में सारा मार्ग दर्शन आप ही से मिला और आज भी मिलता है ।


प्रथम दर्शन
टोंक (राजस्थान) से सन् 1925 में हाई स्कूल पास करके मैं कानपुर सनातन धर्म कॉलेज में पढ़ने गया । मेरे भाई साहब बाबू आनन्द स्वरूप जी वहां रहते थे श्रीमान चच्चा जी महाराज की सेवा में जाने वालों में एक पुराने अभ्यासी थे । अक्टूबर 1925 में एक संध्या को वे मुझे भी अपने साथ ले गए और श्रीमान चच्चा जी महाराज के सामने बैठा दिया । थोड़ा सा परिचय दे दिया । श्रीमान जी मुझ से थोड़ी बात करके अपने परिवार के सदस्यों, भाई साहब आदि से बातें करते रहे । लौटते समय मुझसे कहा जब फुरसत हो कभी-कभी हमारे पास आ जाया करो । मेरी आयु उस समय केवल 17 वर्ष की थी । श्रीमान के विषय में मैं क्या समझ सकता था । परन्तु कुछ आकर्षण (खिंचाव) के कारण उनके पास जाने लगा । कुछ दिनों बाद आपने मुझे अभ्यास बतलाया और कराया । आज्ञा दी कि इसे रोज प्रातः कर लिया करो । उनकी दया कृपा से ये अभ्यास तभी से चल रहा है और जीवन पर्यन्त चलता रहेगा ।


भाई रोया करो
श्रीमान लाला जी महाराज के समय की घटना है । एक बार फतेहगढ़ में श्रीमान चच्चा जी महाराज कमरे में विराजे थे । भाई लोग उन्हें घेरे उनकी बातों पर मुग्ध मस्ती में झूम रहे थे । एक भाई ने श्रीमान चच्चा जी से प्रश्न पूछ लिया “चच्चा पूजा में तो जी बिलकुल नहीं लगता, कुछ ऐसा गुर बतलाइये जिससे मन लगने लगे ।” चच्चा जी महाराज ने तुरन्त ही उत्तर दिया, “यह तो बहुत सरल है-भाई रोया करो ।” उन भाई ने कहा “चच्चा हमें तो रोना भी नहीं आता” तो चच्चा ने कहा “उसमें क्या है, तुम्हारा कोई अपना मर जाता है तो रोते नहीं हो, वैसे ही रोओ ।”


भाई को गुर मिल गया । रोने का अभ्यास आरम्भ हो गया । एक दिन वे मकान के ऊपर के कमरे में बन्द होकर रो रहे थे कि उनकी आवाज जोर से निकलने लगी और घर वालों का ध्यान उधर आकृष्ट हो गया । कमरे के किवाड़ भड़भड़ाये गये तब कहीं देर से उन्होंने किवाड़ खोले ।


उनके इस व्यवहार की शिकायत श्रीमान लाला जी महाराज के पास पहुँची । उनसे बुलाकर पूछा गया तो उन्होंने श्रीमान चच्चा जी महाराज के बतलाये गुर का भेद खोल दिया । श्रीमान लाला जी महाराज को इस बात पर कुछ हंसी आ गई और फ़रमाने लगे, “नन्हे को ऐसी ही बातें सूझा करती हैं ।” उन रोने वाले भाई पर उस दिन से कुछ विशेष कृपा भी हो गई ।


श्रीमान चच्चा जी महाराज को उन भाई ने स्वयं ही जाकर यह घटना सुनाई और कहने लगे, “चच्चा आपने ऐसी तरकीब बतलाई कि हमारा काम बन गया । परन्तु आपको थोड़ी डांट पड़ गई ।”


श्रीमान चच्चा जी महाराज फ़रमाने लगे-

          “कबीर हँसना दूर कर-रोने से कर प्रीत ।
          बिन रोये कैसे मिले, प्रेम पियारा मीत ।।
          हंस हंस कंत न पाइयाँ, जिन्ह पाया तिन्ह रोय ।
          हंसी हंसी जो पिउ मिले तो कौन दुहागिन होय ।


भाई तुम्हारा काम तो हो गया हमें डांट पड़ी सो पड़ी-उसकी चिन्ता न करो ।”


रोना और गिड़गिड़ाना, दीनता आधीनता की निशानी है । चच्चा जी महाराज के अनुसार ये दोनों ही बातें भगवान को प्रिय हैं और हमें भगवान के निकट ले जाने वाली हैं ।


काँग्रेस का 1925 का अधिवेशन
पूज्य चच्चा जी महाराज के पास बैठने तथा उनका वार्तालाप सुनने का अवसर सब सत्संगी भाइयों को स्वतंत्रता के साथ मिलता था । करनलगंज वाले मकान में बहुत छोटा सा कमरा था परन्तु जो लोग आते, पूज्य चच्चा जी सब को अपने पास बुलाते जाते और सब लोग खूब सट कर बैठ जाते । जब कानपुर में दिसम्बर सन् 1925 ई॰ में काँग्रेस का अधिवेशन हुआ था, तब बहुत से भाई लोग बाहर से आये थे । सब उसी कमरे में ठहरे थे और रात को भी वहीं खूब सट कर सोते थे । जाड़े का मौसम था ही । श्री पूज्य चच्चा जी महाराज भी सबके साथ ही उसी कमरे में जमीन पर सोते थे, जब लोग जागते तो देखते कि किसी का पैर पूज्य चच्चा जी के पैर के ऊपर पड़ा है तो किसी का हाथ पर । इस सादगी और सामान्य भाव से रहते थे कि जिससे किसी देखने वाले को गुरु और शिष्य के सम्बन्ध का पता ही नहीं चलता था । परन्तु प्रत्येक भाई के हृदय में पूज्यपाद श्री चच्चा जी महाराज के प्रति अपार श्रद्धा एवं विशेष अनुराग था ।


संत महात्माओं का सत्संग
एक बार की घटना है कि श्री चच्चा जी एक गाँव के बाजार में पहुँचे; बिक्री हो रही थी । शाम का समय था । जब चिराग जलने को हुए एक मस्त फकीर झोला लिए बाजार में आये । सब तरफ से कुँजड़े कहने लगे, “देखो आज किस पर मुसीबत आती है ।” फकीर एक सब्जी वाली की दूकान पर रुके उसे अपना झोला और एक पैसा साग के वास्ते दिया । उसने एक पैसे का साग झोले में रख दिया । इसके बाद वह लगभग 1 घण्टे तक हुज्जत करते रहे । अरे भाई थोड़ा और दे दो, थोड़ा और दे दो । यही, बार-बार कहते रहे, फिर झोला उठा कर चल दिये । श्री चच्चा जी उनके पीछे हो लिये । लगभग एक मील चलकर फकीर अपनी कुटिया में पहुँचे । पूज्य चच्चा जी को देखकर उन्हें प्रेम से बैठाया खातिर की और फिर रूहानी दावत शुरू हो गई । बड़ा आनन्द रहा ।


चच्चा जी ने अन्त में कहा-महाराज ! यहाँ यह हालत और वहाँ वह दशा । उन्होंने जवाब दिया-क्या करुँ ? यदि इस तरह न रहूँ तो पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाये-कहीं कोई मुकदमा जिताने को कहता है, कोई पुत्र माँगता है कोई धन माँगता है इत्यादि । सभी लोग आकर घेरने लगेंगे, फिर तो मेरा यहाँ रहना मुश्किल हो जायेगा ।


ठीक यही हाल था पूज्य चच्चा जी का । तहसील अलीगढ़ जिला फर्रुखाबाद में 27 वर्ष तक रहे, पर कोई न जान सका वे राम-नाम भी जानते हैं । मकान के बाहर दरवाजे पर एक चारपाई पर बैठे रहते थे ओर हुक्का बराबर चलता रहता था । दिन भर के बाद शाम को पैसे सवा पैसे के चने या दूध लेते थे, रात को भी यहीं पड़े रहते थे । उन दिनों आरायज नवीसी करते थे । जो कुछ मिला रास्ते में बच्चों को ही बँट जाता था; सैकड़ों रुपए मुवक्किल लोग इनके यहाँ रख जाते और जब चाहते उठा ले जाते थे । घर बिना ताला कुंजी के वैसा ही खुला पड़ा रहता था । लोग कहते, जो उनका मुँह सुबह उठ कर देख लेगा, उसे उस दिन खाना नहीं मिलेगा । ऐसा लोगों से बचने के लिए स्वयं चच्चा जी ने माहौल बना रखा था ।


दूसरी घटना

एक बार पूज्य चच्चा जी ट्रेन से कहीं जा रहे थे । ट्रेन अकस्मात ही एक जंगल में रुक गई और एक आदमी उतर कर जंगल की ओर चल दिया । चच्चा जी भी उतर कर उसके पीछे हो लिये । काफी घने जंगल में जाकर वह एक झाड़ी में कूद कर छिप गया । यह सदा सुहागिन था (यह एक संप्रदाय है जिसके साधु स्त्री-वेष में रहते है) । चच्चा जी भी कूदकर अन्दर पहुंच गए-एक तरफ को सिमटते हुए उसने कहा- “उइ ! मरदुआ कहाँ से?” (यह मर्द कहाँ से आया । संतों की भाषा में पूर्ण संत को मर्द कहा जाता है) । चच्चा जी ने उत्तर दिया-”मरदुआ हो तब ना ?” तब उसने कहा, “अच्छा आओ गुइयाँ आओ बैठ जाओ ।” दोनों बैठ गये । रूहानी दावत शुरू हो गई, पहले उसकी तरफ से खातिरदारी हुई । बड़ा आनन्द रहा । फिर उसने चच्चा जी से दरख्वास्त की । आँखें मिंच गईं और पूजा आरम्भ हो गई । थोड़ी देर बाद आँख खुलने पर उसने कहा- “गुइयाँ खूब रही ।”


फिर चच्चा जी को बताया यह तो बड़ा घना जंगल है, स्टेशन बहुत दूर है, तुम आँखें बन्द करो । चच्चा जी ने आँख बन्द की, और जब आँखें खोली तो अपने आपको स्टेशन पर पाया ट्रेन खड़ी थी, बैठ गए और ट्रेन चल दी । लगता है उनकी प्रतीक्षा में ट्रेन खड़ी थी ।


एक बार श्री चच्चा जी महाराज कुम्भ के अवसर पर प्रयाग गये हुये थे । साथ में बहुत से सत्संगी भाई भी थे । एक दिन डेरे के अन्दर सब सज्जन बैठे हुए थे कि एक सन्यासी जी आए । कुछ देर तक खड़े देखते रहे और कहा, “तुम में कौन महात्मा है ?” उनके दो-तीन बार पूछने पर श्री चच्चा जी ने कहा, 'ये सब महात्मा हैं ।' वे सन्यासी जी हैरान होकर चल दिये । थोड़ी देर बाद फिर लौट कर आये और लगभग एक घण्टा बैठे रहे । आँखें भी बन्द की और फिर चलते समय कहने लगे, भाई खूब छिपाते हो तथा प्रसन्न होकर चले गये ।


शिक्षा का तरीका
पूज्य चच्चा जी महाराज के शिक्षा देने का ढंग अनोखा था । वे शिष्टाचार विनम्रता आदि अन्य व्यवहार की शिक्षा विचित्र ढंग से देते थे । गुप्त रूप से काम करते थे तथा कभी किसी की आलोचना नहीं करते थे । न किसी को किसी बात के लिए प्रत्यक्ष में मना करते थे । साधारण उपदेश में सब बातें कह जाते जिसे केवल वही व्यक्ति समझ पाता जिसके सम्बन्ध में बात कही जाती थी । उनके पास चिन्ता, अशान्ति, द्वेष आदि से पीड़ित जो भी व्यक्ति जाता, उसके सारे क्लेश दर्शन मात्र से वैसे ही दूर हो जाते-जैसे भगवान भास्कर के प्रकाश से सारा अन्धकार दूर हो जाता है । लोग अनेकों शंकायें तथा प्रश्नों को लेकर उनके पास जाते और बिना पूछे ही उनके प्रश्न हल हो जाते ।


इसी सम्बन्ध की एक घटना है । एक बार एक नये सत्संगी भाई आये । उनको आते हुये आठ दिन हुये थे । एक दिन उनके मन में आया कि जो झगड़ा उनका उनके बहनोई जी से कई वर्षों से चला आ रहा है, वह समाप्त हो जाये और उनसे मेल हो जाये । सौभाग्य से होली के दिन थे । वे अपने बहनोई के घर में पहुँचे । उनके पैर छुये और होली मिले । वर्षों का द्वेष क्षण मात्र में दूर हो गया । लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ । यह सब पूज्य चच्चा जी महाराज का ही प्रताप था ।


          “उमा न कछु कपि कै अधिकाई, प्रभु प्रताप जो कालहिं खाई ।”


पूज्य चच्चा जी कहा नहीं करते, कर दिया करते थे । इसी प्रकार लोगों की बुरी आदतें उनके पास बैठने से ही चली जाती थीं । ऊपर से तो वे बड़ी दिल लुभाने वाली लच्छेदार बातें किया करते और अन्दर ही अन्दर हृदय के मैल को साफ करके निर्मल बना देते थे । यह बात बड़ी कठिनाई से कहीं-कहीं देखने में आती है ।


सत्संगियों में से एक श्रीमान को मदिरापान की आदत थी और धनाढ्य होने के कारण मदिरा-पान में इच्छानुसार धन भी व्यय किया करते थे । एक दिन पूज्य चच्चा जी से एकान्त में बात हुई । उन सज्जन ने कहा कि यह मेरा बहुत बुरा व्यसन है । अब आगे से मद्यपान न करुंगा । किन्तु 10-15 दिन बाद एक दिन उन्होंने फिर मदिरा पी ली । सत्संग के बाद जब सब लोग चले गये और वह अकेले रह गये, तो उनकी फिर पूज्य चच्चा जी से बातचीत हुई । उन्होंने चच्चा जी के समक्ष अपनी गलती को स्वीकार किया और भविष्य में फिर मद्यपान न करने की दृढ़ प्रतिज्ञा की । इसके बाद 8-10 दिन बीत जाने पर एक दिन फिर उन्हीं सज्जन की एकान्त में पूज्य चच्चा जी से वार्ता हुई । उन्होंने कहा, मेरी मदिरा तो छूट नहीं सकती, मैंने कल फिर पी ली थी । अतः मैं अब इसे छोड़ने का प्रयत्न भी न करुंगा और कल से यहाँ भी नहीं आऊँगा । इस पर पूज्य चच्चा जी महाराज ने कहा, मैंने तो आपको कभी शराब पीने को मना नहीं किया । आपने स्वयं ही छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी । इसमें मेरा क्या अपराध है जो कल से आप नहीं आयेंगे । आप मदिरापान कीजिये, पर मुझ पर इतनी कृपा कीजिये कि मुझे बतला जाया कीजिये कि आज आपने कितनी पी है । इस बात को उन्होंने स्वीकार कर लिया । इसके बाद वे नित्यप्रति जाते समय चच्चा जी के कान में कुछ कह जाते थे । चार-पाँच दिन तक ऐसा होता रहा । फिर पच्चीस दिन या एक महीने बाद उन्होंने एक दिन पूज्य चच्चा जी से कहा कि आज मैं आपसे लड़ने आया हूँ । पूज्य चच्चा जी ने कहा, भाई साहब ! मुझसे क्या अपराध हुआ । उन्होंने बताया-लगभग एक मास हो गया, मैंने मदिरा-पान नहीं किया । मुझको उसकी याद भी नहीं आती । मुझे उसकी इच्छा भी नहीं होती, अपितु एक प्रकार की घृणा हो रही है । जब आप इतनी आसानी से मेरा दुर्व्यसन छुड़ा सकते थे, तो आपने मुझको इतना परेशान क्यों किया । पूज्य चच्चा जी ने कहा, भाई आपने अपने आप ही प्रतिज्ञा की थी । जब आप उसको पूरा न कर सके और हार मान ली तो मैंने सोचा कि मैं ही उसके दरवाजे पर गिड़गिड़ा कर आपके लिये 
प्रार्थना करुँ । धन्यवाद है उस मालिक को, उसने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली । इसी प्रकार पूज्य चच्चा जी बड़े बड़े काम करते, पर कभी नहीं कहते कि मैंने यह काम किया ।
मुंशी जी


पूज्य चच्चा जी के पड़ोस में एक मुंशी जी रहते थे । ये बहुत दीन थे । इनके बाल बच्चे भी थे । कभी-कभी फाका भी करना पड़ता था । पूज्य चच्चा जी महाराज इनको सहायता भी दिया करते थे और दूसरों से भी दिलवाया करते थे । तंग आकर एक दिन सुबह ये गंगा जी गये । कपड़े उतार कर गंगा जी में घुसे और डूब मरने का इरादा किया । इतने में देखा कि चच्चा जी डंडा लिये आ रहे हैं और डाँट कर कहते हैं-क्या अनर्थ करते हो, पानी से बाहर निकलो ? डाँट के मारे वह घबरा गये और पानी से बाहर निकल आये । जल्दी में कपड़े तथा जूते हाथ में उठा कर भागे । स्वयं भागते जाते और पीछे देखते जाते कि पूज्य चच्चा जी महाराज डंडा लिये आ रहे हैं । जब नगर के समीप आ गये तो देखा कि चच्चा जी नहीं हैं । मुंशी जी ने कपड़े आदि पहने और सीधे चच्चाजी के मकान पर आये । देखा कि आप आराम से बैठे हुक्का पी रहे हैं और सत्संगियों से बातचीत कर रहे हैं । इनको देख कर बहुत हँसे और पूछा कहिए मुंशी जी ! मिजाज अच्छा है । उन्होंने सब किस्सा अर्ज कर दिया । आप हँसने लगे । मुंशी जी ने सत्संगियों से एकान्त में पूछा, तो ज्ञात हुआ कि आप प्रातः काल से यहीं बैठे हैं और कहीं नहीं गये ।


सिद्धि का प्रदर्शन

एक बार श्री पूज्य चच्चाजी महाराज के पास एक पण्डित जी आये । उनको एक सिद्धि प्राप्त थी, जिसके द्वारा जब चाहें जिस किसी की ज़ुबान बन्द कर देते थे । वह व्यक्ति फिर बोलने में असमर्थ हो जाता था । पण्डित जी ने अपनी शक्ति का प्रयोग पूज्य चच्चा जी महाराज पर भी किया । थोड़ी देर तक वह चुप बैठे रहे । फिर उन्होंने कागज पर लिख कर दिया कि कृपा करके आप मेरी ज़ुबान खोल दें । पण्डित जी अहंकार के मद में डूबे हुए थे । उन्होंने पूज्य चच्चा जी महाराज की बात हंस कर टाल दी । जब वे नहीं माने, तो पूज्य चच्चा जी महाराज बात करने लगे । इसको देखकर पण्डित जी को आश्चर्य हुआ और उठ कर चले गए । कुछ समय बाद पण्डित जी पूज्य चच्चाजी के पास आए और पैर पकड़ कर फूट-फूट कर रोने लगे । कहा, “मैं तो लुट गया । मेरी शक्ति छिन गई जिसके द्वारा मैं कमाने का धन्धा किया करता था । अब मैं क्या करुँ ?” सन्त दयालु होते हैं । फिर वह तो परम सन्त थे । उनको दया आ गई । उन्होंने उनकी शक्ति को वापस लौटा दिया और कहा, “अहंकार अच्छा नहीं होता ।”


ढोंगी सन्यासी

एक सन्यासी जी अपने चेले के साथ पूज्य लाला जी के पास आये । एक दिन बाहर बरामदे में पूज्य चच्चा जी का हंसी मजाक का दरबार जारी था, वहीं सन्यासी जी के चेले भी बैठ गये ।


कुछ बातों में प्रसंग में पूज्य चच्चा जी ने कहा- “ये सन्यासी नहीं हैं, गलत कहते हैं ।” उन्हें यह बात बड़ी बुरी लगी । उन्होंने इसकी शिकायत अपने गुरु जी से की और फिर उनके गुरु जी ने बात पूज्य लाला जी से कह दी । पूज्य लाला जी ने चच्चा जी बुलाया और पूछा-”क्यों ? आपने इनसे कह दिया कि यह सन्यासी नहीं हैं ? झूठ बोलते हैं ?”


चच्चा जी ने सन्यासी जी के चेले को सम्बोधित करते हुए कहा कि गृहस्थ के तो सिर्फ एक पत्नी होती है, परन्तु आपके तो दो पत्नीयाँ हैं । सब लोग आश्चर्य से चच्चा जी की तरफ देखने लगे । चच्चा जी ने कहा “आपकी एक पत्नी जो सदैव आपके साथ रहती है और वह जैसा चाहती है, आपसे करवाती है वह है-आपका मन और आपकी दूसरी पत्नी जो 5 हाथ की है वह आपके घर पर बैठी है । इस पर आप अपने को सन्यासी कहते हैं ?” सब की विस्मित आँखें अब सन्यासी जी के चेले पर थी, जिनका मुँह सूख गया था, गला रूँध गया था, हवाइयाँ उड़ रही थी और पसीना छूट रहा था । चच्चा जी इतना कह कर बाहर चले आये और सन्यासी जी ने अपने चेले को डाँटना शुरू कर दिया-”क्यों रे ! तूनें तो कहा था, तेरे स्त्री नहीं है.. ।” वह चेला अपनी स्त्री को छोड़कर सन्यासी बन गया था ।


भक्तों की संभाल


श्री पूज्य चच्चा जी महाराज के एक भक्त का तार आया कि उनका लड़का सख्त बीमार है । ट्रेन छूटने का समय अति निकट था, इसलिए श्री चच्चा जी महाराज शाम को बिना भोजन किये ही वहाँ को चल दिये । इनके साथ एक सत्संगी भाई भी थे । ट्रेन उस दिन कुछ लेट हो गई । भक्त प्रतीक्षा करते-करते सो गये । जब ये लोग उनके घर पहुँचे तो दरवाजा बन्द था । श्री चच्चा जी महाराज ने सत्संगी भाई से कहा कि आवाज मत दो और मत जगाओ । बेचारे तीमारदारी में जागते रहे होंगे-नींद लग गई है । आराम कर लेने दो । अतः दोनों साहब बाहर ही चबूतरे पर रात भर वैसे ही पड़े रहे । जब सुबह भक्त ने दरवाजा खोला तो इन लोगों को देखकर अवाक रह गये ।


पूज्य चच्चा जी दुर्गुणों को सद्गुणों में बड़ी ही सरलता से एवं सुगमता से परिणत कर देते थे । उनका एक बड़ा सुन्दर उदाहरण यहाँ प्रस्तुत किया जाता है । एक सत्संगी भाई को समाचार पत्रों के पढ़ने का व्यसन था । उन दिनों द्वितीय महायुद्ध चल रहा था । पूज्य चच्चा जी ने कहा, भाई ! मुझे युद्ध के समाचार एकत्रित करके सुनाया करो । अतः वे सत्संगी जी समाचारों को एकत्रित किया करते । इस प्रकार उन्हें पूज्य चच्चा जी का सदैव स्मरण रहता । पूजा के बाद समाचार पूज्य चच्चा को सुनाते और सुनाने के बाद भूल जाते । कुछ दिन बाद उनका व्यसन जाता रहा ।


परम पूज्य चच्चा जी महाराज किस्से और कहानियाँ बहुत सुना करते थे । प्रत्येक व्यक्ति से कहते, भाई ! कोई कहानी सुनाओ । रात को जब विश्राम को जाते तब भी लोगों से कहानियाँ सुना करते । कहानियों के प्रकार का कोई निषेध न था । कहानी चाहे धार्मिक पुस्तक की हो या उपन्यास की हो । एक मास्टर जी पूज्य चच्चा जी को सोते समय बहुत दिनों तक जासूसी उपन्यास सुनाया करते थे । पूज्य चच्चा जी ऐसे सुनते मानों बड़े तन्मय होकर सुन रहे हों । कभी-कभी बीच में प्रश्न भी कर देते । वास्तव में यह किस्से बाजी निरी किस्से बाजी ही नहीं होती थी अपितु जब साधक का मन किस्से में लगा होता था, उसी समय पूज्य चच्चा जी अपनी आत्मिक शक्ति से उसके हृदय के मैल को साफ कर देते थे ।
कव्वाली


एक बार बरेली में चिश्ती सूफियों का जलसा हो रहा था और कव्वाली हो रही थी । बड़ा समां बंधा हुआ था । खूब स्वर उठाये जा रहे थे । पूज्य चच्चा जी भी वहीं पहुँच गए । जैसे ही कव्वाली समाप्त हुई चच्चा जी ने भी ऊंचे स्वर में एक ग़ज़ल शुरू कर दी-


          न ख्वाहम दौलते दुनिया, न जन्नतरा तलब गारम ।
          दिलो जाँ मी फरोशम, दर्दें इश्क रा खरीदम ।।
          न पेशेमन इबादत शुद, न पोशीदम रियाज तरा ।
          नजर बर फज़ल तो दारम, सरापा मन गुनह गारम ।।


अर्थ- न मैं सांसारिक धन और वैभव की कामना रखता हूँ और न स्वर्ग की आकांक्षा है । दिल और जान को बेचता हूँ और उसके बदले में प्रेम की पीड़ा का ग्राहक हूँ । मुझसे न तो भक्ति बन सकी है और न मैंने तप ही किया है । मैं सिर से पैर तक पापी हूँ । तेरी दया और कृपा का भरोसा है ।


इतना सुनते ही शाह साहब भाव में इतने भर गये कि तड़प कर उठे और चच्चा जी का हाथ पकड़ कर उन्हें अपने पास ही बैठाया । चिश्तियों के यहाँ जिसे गुरु पदवी की इजाजत देते और अपना उत्तराधिकारी बनाते हैं उसे रुमाल, टोपी, चादर आदि कोई वस्तु देते हैं । जब जलसा खतम हुआ इसी प्रथा के अनुसार उन्होंने चच्चाजी को एक रुमाल पेश किया ।
चच्चा जी ने उन्हें निम्नलिखित शेर कहते हुए रुमाल वापस कर दिया-


          “रुमाल उसको दीजिये जो मुस्तमंद हो,
          यह फकीर तो अपनी ही कमली में मस्त है ।।”


रात को जागते रहना


एक सत्संगी भाई ने बताया कि वे श्री पूज्य चच्चा जी महाराज के साथ फतेहगढ़ के भण्डारे में गये थे । वहाँ पहुँचने पर श्री पूज्य चच्चा जी महाराज घर पर ठहरे और सब सत्संगी भाई समाधि पर ठहरे । जनाब पेशकार साहब महात्मा प्रभु दयाल जी इन सत्संगी भाई से अधिक प्रेम करते थे ये उन्हीं के साथ समाधि पर ठहरे । सुबह श्री पूज्य चच्चाजी महाराज ने इन सत्संगी भाई से पूछा, “रात कहाँ रहे ?” इन्होंने उत्तर दिया, “समाधि पर रहा ।” श्री पूज्य चच्चाजी ने शाम होने से पहले ही इन सत्संगी भाई से कह दिया आज यहीं सोइयेगा । अतः ये रात को श्री पूज्य चच्चाजी के पास ही सोये । रात को श्री पूज्य चच्चाजी महाराज 11-12 बजे लेट गये । ये सत्संगी भाई भी सो गये । रात को 1 बजे आँख खुली तो इन्होंने देखा कि श्री पूज्य चच्चा जी महाराज चारपाई पर बैठे है ये भी उठ कर बैठ गये । थोड़ी देर बाद श्री पूज्य चच्चा जी महाराज ने देखा और कहा-आप क्यों बैठे हैं ? इन्होंने पूछा-महाराज जी ! क्या आपके कोई तकलीफ है ? चच्चा जी कहने लगे-नहीं भाई और लेट गये । इन सत्संगी भाई की 3 बजे फिर आँख खुली । इन्होंने श्री चच्चाजी को फिर बैठे देखा । ये भी उठ कर बैठ गये । थोड़ी देर बाद श्री महाराज जी ने फिर पूछा कि भाई आप क्यों बैठे हैं । मेरे तो ज्यादा देर लेटने में दम फूलने लगता है, इसलिए कभी लेट जाता हूँ कभी बैठ जाता हूँ । अतः सत्संगी भाई को लिटा दिया और आप बैठे रहे । सत्संगी भाई ने देखा कि श्री पूज्य चच्चा जी महाराज रात भर जागते रहे । जब सबके जागने का समय हुआ तब 4 बजे लेट रहे और फिर सबके साथ 5 बजे उठ बैठे । यह थी श्री पूज्य चच्चा जी की रात चर्या । ये सत्संगी भाई पूज्य चच्चा के पास दो रातें रहे और इन्होंने देखा कि श्री पूज्य चच्चाजी महाराज रात भर भाइयों के लिए इसी तरह दुआ माँगते और गायबाना तवज्जह देते रहे ।


आप कहा करते थे “जिसने निरी दुनिया देखी उसकी हुई थू-थू और जिसने निरा ईश्वर देखा उसकी हुई फू-फू” ।


दुनियाँ और उकवा (लोक-परलोक) दोनों ही ठीक-ठीक निभाना चाहिये । एक का न होना चाहिए । यही सांख्य योग है कि दुनियाँ में रहते हुये दुनियाँ का सब काम करते हुये दुनियाँ से अलग रहना । आप सदैव बड़ी बात को थोड़े शब्दों में कह दिया करते थे । शब्द सार से भरे होते थे ।


आप कहा करते थे-


          “मन लागत लागत लागत है, भय भागत भागत भागत है,
          बहुत दिनों का सोया मनुवा जागत जागत जागत है ।”


आप फ़रमाया करते थे कि जो जाहिर हो गया वह दो कौड़ी का हो गया । फ़क़ीरी छुपाने की चीज है ।


कबीर दास जी ने भी कहा है-”धरमदास तोहें राम दोहाई । सार भेद बाहर ना जाई ।” और फकीर सन्त भी यही कहते थे कि हमारी मजलिस मजलिसे आम नहीं हमारी मजलिस मजलिसे खास है । यह तो प्रेम का रास्ता है और प्रेम दिल की चीज है । इसमें दिखलावे के लिए कोई स्थान नहीं ।


          “प्रेम गली अति साँकरी, जामें दुइ न समाय”


जनाब लाला जी के जीवन में अगर कोई बात चच्चा जी से पूछता तो आप  फ़रमाते कि जनाब लाला जी से पूछो वही मालिक हैं-हम तुम तो भाई-भाई हैं । जनाब लालाजी के शिष्यों का बड़ा सम्मान करते और उनको भाई समझते तब तालीम का सब काम चच्चा जी ही किया करते थे ।


आप कभी किसी पर गुस्सा नहीं करते थे । आप  फ़रमाते थे कि फकीर से गुस्सा पूछ कर आता है और अगर किसी को गुस्सा आवे तो तीन दिन से ज्यादा न रहना चाहिए वरना संस्कार बन जाते हैं । एक समय आपने झूठ-मूठ गुस्सा करके दिखलाया-एक मेहतर था जो कि ठीक काम नहीं करता था । उस पर आपने इतनी जोर से डांट बतलाई कि वह भागते ही बना । आपने फ़रमाया कि मैं गुस्सा थोड़े ही हुआ था । जरा उसको डांट दिया था कि ठीक काम किया करे । फिर बड़ी प्रसन्नता से बातचीत करने लगे ।


आप परमात्मा की याद में इतने भूले रहते थे कि एक समय आप सीतापुर गये और जिनके यहाँ जाना था उनका नाम भी भूल गये तो आपने फ़रमाया कि हमने बाजार में पूड़ियाँ खाई और फिर रेल में सवार हो गये । फिर तो जब वहाँ से चल दिये तब उनका नाम याद आ गया ।


चच्चा जी ऐसे ही मस्त फकीर थे कि उनको अपनी सुध-बुध ही न थी और दूसरों को भी मस्त कर दिया करते थे । उनके पास जाने से किसी बात की चिन्ता ही नहीं रहती थी मालूम होता था सब चिन्तायें उन्होंने हर ली ।


आप जब कोई पुस्तक देखा करते तो पढ़ते-पढ़ते आप रोने लगते और प्रेम में आकर आँसू बहाया करते । आपको कभी-कभी दर्द की शिकायत होती थी तो बहुत सहन करते थे । जब ठीक हो जाते तो कहा करते कि जब वह परमात्मा हँसाता है तब हंस देता हूँ और जब रुलाता है तब रो देता हूँ । हर हालत में परमात्मा को धन्यवाद देते ।


एक समय आपके भ्राता महात्मा रामचन्द्र जी (लालाजी साहब) किसी सत्संगी के घर पधारे तो उस सत्संगी भाई की आदत थी कि बहुत खिलाया करते थे । जनाब लाला जी बस बस करते तब भी वह एक आध पूरी और परस देते थे । आखिर तंग आकर लाला जी खाना छोड़ कर उठ आये और तीन दिन तक उनके मकान पर ठहरे मगर भोजन नहीं किया ।


एक समय उन सत्संगी भाई के यहाँ कोई काम था । जनाब चच्चा जी वहाँ गये और इनके साथ भी वही हरकत की तो चच्चा जी ने खाना आरम्भ किया । यहाँ तक कि 60 आदमियों का भोजन तैयार हुआ था वह सब खा गये । इधर खाना परसा गया उधर गायब । फिर तो सत्संगी ने बाजार से मंगाना आरम्भ किया । जब पैसे भी समाप्त हो गए तो बहुत परेशान हुए । तब उन्होंने जनाब चच्चा जी से क्षमा माँगी । चच्चा जी महाराज ने कहा जाओ उस कोठरी में तुम्हारा खाना धरा है ।


इसके बाद जब जैसे ही चच्चा जी लौट कर घर आये तो लाला जी महाराज को सब मालूम था ही । वे किसी से कह रहे थे कि ऐसा भी हो सकता है कि कितना ही खाना कोई खिलाये व खाना अदृश्य हो जाये । तब लाला जी बड़े अप्रसन्न हो गये और कहा कि कान पकड़ो और उठो बैठो, क्या किसी की इज्जत लेना है ? चच्चा जी ने तीन दफा कान पकड़े और उठे बैठे ।


ख्वाजा साहब, अजमेर


एक समय ठाकुर शिव नायक सिंह जी को राजस्थान जाने का अवसर मिला । आप श्री चच्चा जी के पास होते हुये उधर पहुँचे । श्री चच्चा जी महाराज ने उनको चलते हुये कहा कि जब तुम अजमेर जाना तो ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती साहब की दरगाह पर हो आना । जब ठाकुर साहब को अजमेर पहुंचने का अवसर मिला तो स्टेशन पर ही जनाब ख्वाजा साहब मय अपने भानजे के उनको मिलने के लिए आये और बाद दुआ व सलाम जनाब ख्वाजा साहब ने फ़रमाया कि तुम को हमारे यहाँ मेहमान भेजा गया है इसलिए हम आये हैं । जब सदर दरवाजे पर पहुँचे तो कहने लगे कि यहाँ से हमारा इलाका शुरू होता है ।


ठाकुर साहब ने उनसे कहा मैं कल हाजिर होऊंगा ।


अगले दिन ठाकुर साहब दरगाह पहुँचे तो वहाँ पर कव्वालियाँ हो रही थीं । ठाकुर साहब कुछ देर तक वहाँ पर बैठे रहे और ख्वाजा साहब और उनके भानजे को भी वहीं पर बैठे देखा ।


इसके बाद दरगाह को देखा तो वहाँ पर एक छोटी सी कबर देखी तो लोगों से पूछा कि यह कबर किसकी है । लोगों ने बतलाया कि यह कबर उनके भानजे की है ।


जब ठाकुर साहब अजमेर से वापिस आ रहे थे तो ख्वाजा साहब उनको छोड़ने के लिये स्टेशन पर आ गये और फ़रमाया कि अब तुम राजपूताने से वापस जा रहे हो । जब वापस आकर जनाब चच्चा जी से ठाकुर साहब की मुलाकात हुई तो सब हाल उनसे सुना तो चच्चा जी ने कहा कि ठीक है ।


एक मरतबा फिर जब ठाकुर साहब को राजस्थान जाने का अवसर मिला । उस समय चच्चा जी अपने जाहिरी शरीर का त्याग कर चुके थे । दरगाह पर गये तो ख्वाजा साहब को नहीं पाया और कहने लगे कि अबकी ख्वाजा साहब से मुलाकात नहीं हुई । इतना ख्याल करते ही ख्वाजा साहब आ पहुँचे और फ़रमाने लगे कि कहीं पर उर्स हो रहा है वहाँ गया था ।


समाधि


इस प्रकार जन साधारण के पथ-प्रदर्शन का कार्य करते हुए आप 7 जून 1947 को बैठे आसन लिए हुए निर्वाण प्राप्त हुए । आपकी समाधि कानपुर नगर के बाहर हमीरपुर रोड पर बनाई गई । बसन्त पंचमी पर आप अपने जीवन काल में श्रीमान लालाजी महाराज का उनकी जन्म तिथि पर भण्डारा किया करते थे । वही भण्डारा बसन्त पर प्रतिवर्ष अब भी होता है । इस अवसर पर हमारे सत्संगी भाई घर तथा समाधि पर एकत्रित होते हैं । सामूहिक पूजा ध्यानादि होता है और शांति तथा प्रेम की ऐसी वर्षा होती है कि आने वाले सभी आगन्तुक उसमें सराबोर हो जाते हैं ।


आपका विस्तृत जीवन चरित्र कानपुर से श्री प्रकाशचन्द वर्मा (536, आनन्द बाग पार्क, कानपुर) द्वारा प्रकाशित कराया जा चुका है । आपके एक प्रमुख शिष्य श्रीमान महात्मा शिव नारायण दास गाँधी जी ने जो आपके नित्य प्रति के उपदेश डायरी में लिख लेते थे इन सब को पुस्तक रूप में प्रस्तुत किया है । यह पुस्तक 'पीयूष वाणी' भी इन्हीं महानुभाव श्री प्रकाशचन्द जी ने प्रकाशित कराई है । पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इन परम सन्त महात्मा के दिव्य जीवन को अपने दैनिक जीवन में उतारने का प्रयत्न करें । इसी में कल्याण है । आपकी समाधि हम सभी का एक तीर्थ है जहाँ कृपा धार (फ़ैज़) की इतनी वर्षा होती है कि तन बदन का होश नहीं रहता । यहाँ सभी सत्संगियों को बराबर जाना चाहिए और फैज़याब होना चाहिए । इस स्थान से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटा ।






36-3 हजरत जनाब महात्मा डॉ॰ कृष्ण स्वरूप साहब

                            (जयपुर)
 

आपकी समाधि फतेहगढ़ में है । 

गूगल मैप कोर्डिनेट्स :27°21'26.4"N 79°37'38.0"E


महात्मा हरनारायण जी सक्सेना की पुस्तक 'नक्शबंदिया सिलसिले के बुजुर्गान व उनकी समाधियां' से साभार

परम संत महात्मा डॉ॰ कृष्ण स्वरूप साहब का जन्म भौगांव में 22 दिसम्बर 1879 को हुआ । आपके पिता श्रीमान उलफ़त राय साहब श्रीमान लालाजी महाराज के खास चाचा थे । कहा जाता है कि आप जन्म जात संत थे । अतएव गुरु कृपा तथा पूर्व जन्म के सुसंस्कारों के कारण आपको 23 वर्ष की आयु में ही गुरु पदवी प्राप्त हो गई । उसके पश्चात् आप निरंतर रूहानियत की बरकत अपने गुरुदेव के आदेशानुसार बाँटते रहे ।


परम संत डॉ॰ कृष्ण स्वरूप जी अपने बड़े भाई परम संत महात्मा रामचन्द्रजी साहब के पास फर्रुखाबाद में विद्याध्ययन के लिये आकर रहते थे । आप भी महात्मा जी के साथ उनके सद्गुरु परम संत मौलवी फज़ल अहमद खाँ साहब के पास मुफ्ती मदरसे में उर्दू-फारसी पढ़ा करते थे । आपको बचपन में पतंग उड़ाने का बहुत शौक था । एक दिन कटी हुई पतंग को लूटने के लिये बालक कृष्ण स्वरूप जी मुफ्ती मदरसे के अहाते में अन्य बालकों के साथ पहुँच गये । उस कटी हुई पतंग का धागा परम संत सद्गुरु मौलाना फज़ल अहमद खाँ साहब के हाथ में आ गया । आपने उस पतंग को पकड़ कर बालक कृष्ण स्वरूप को कहा कि “आओ यह पतंग ले लो ।” पतंग के लालच से जैसे वे मौलवी साहब के पास पहुँचे उन्होंने उन्हें पकड़ कर गोदी में बिठा लिया और बड़ी देर तक पतंग उड़ाते रहे । उसी वक्त महात्मा रामचन्द्र साहब भी उनके पास उर्दू फारसी पढ़ रहे थे । मौलवी साहब ने महात्मा जी से फ़रमाया कि “मुंशी जी, आज से ये आपके छोटे भाई हमारे हो गये ।” उसी दिन से डॉ॰ कृष्ण स्वरूप साहब का झुकाव रूहानियत की तरफ हो गया । आपके घर में आपकी माता जी परम भगवत् भक्त थीं । वे शिव जी की उपासना किया करती थीं । वे रामायण की भी बड़ी प्रेमी थीं । उन्होंने बाल्यकाल से ही बालक कृष्ण स्वरूप को कर्म-कांड व पूजा पाठ में लगा दिया था । ये भी रोज शंकर जी के मन्दिर में जाकर शंकर की मूर्ति को हज़ारों बिल्व पत्र चढ़ाया करते थे । एक दिन उन्होंने शंकर जी की मूर्ति पर कोई खराब चीज पड़ी हुई देख ली । इस पर आपके हृदय को बड़ी चोट लगी कि यह कैसा सर्वशक्तिमान ईश्वर है, जिसमें अपने ऊपर से बुरी चीज हटाने की भी शक्ति नहीं है ? उस दिन से आपने शंकर जी पर बिल्व पत्र चढ़ाना बंद कर दिया । इस कारण आपकी माता जी ने आपकी एक बार बहुत पिटाई भी की । परन्तु आपका जी कर्मकाण्ड से ऊब गया । रामायण के सातों काण्ड आपको मुखाग्र याद थे । यही नहीं उन्हें सम्पूर्ण भगवद् गीता भी जबानी याद थी, इसीलिए वे जवानी में 'हाफिज जी' कहलाते थे । क़ुतुबबीनी यह आलम था कि नवल किशोर प्रेस लखनऊ में छपने वाली हर पुस्तक उनके पास नियमपूर्वक भेजी जाती थी । उनका पढ़ाई का यह शौक ही उन्हें आगरा मेडिकल स्कूल में ले गया ।


परम संत महात्मा रामचन्द्र जी के यहाँ फरुखाबाद में ही आपकी शिक्षा दीक्षा हुई । जीवन के एक मुबारिक दिन परम संत मौलवी साहब ने डॉ॰ कृष्ण स्वरूप जी को दीक्षा देकर महात्मा रामचन्द्र जी के सुपुर्द कर दिया यह कह कर कि वे इनकी रूहानी तालीम अपनी खास तवज्जोह से पूरी कर दें । महात्मा रामचन्द्र का भी आप पर अपार स्नेह था । डॉ॰ साहब भी महात्मा जी को अपना सर्वस्व मानते


एक बार महात्मा जी से किसी सत्संगी भाई ने फतेहगढ़ में पूछा कि आप मथन्नी चच्चा (डॉ॰ कृष्ण स्वरूप जी) पर इतनी कृपा क्यों रखते हैं तो आपने मुस्करा कर फ़रमाया “वह मेरे सीने से उसी तरह चिपट कर हमेशा रूहानियत खींचता रहता है जैसे माता के स्तनों से बच्चा चिपटा रहता है ।” जब डाक्टर साहब लालाजी साहब के पास फर्रुखाबाद रहते थे तो अभ्यास की ज्यादती से जलाल इतना बढ़ गया कि चेहरा व आँखें सुर्ख रहती थीं । लालाजी साहब ने हिदायत कर रखी थी कि कोई भी विशेषकर बच्चों को, उनके बिस्तर पर न सुलाया जावे क्योंकि वैसा करने से संभवतः मौत हो सकती थी । इसकी खबर जब रायपुर वाले हुजूर पूज्य फज़्ल अहमद खां साहब तक पहुंची तो आप उनकी खिदमत में पैदल चलकर पहुँचे व कहते हैं 20 मील का रास्ता मात्र आधा घंटे में तय किया व सलाम अर्ज किया । वे बोले बरखुरदार यह क्या माजरा है ? हम ये क्या सुन रहे हैं ? उन्होंने अपने पास रखे अमरूद में से एक काश (टुकड़ा) काट कर डाक्टर साहब को खाने के लिए दी । वे कहते थे कि उसे खाते ही उन्हें यह अहसास हुआ कि किसी ने सैकड़ों घड़े ठंडा पानी उनके ऊपर डाल दिया हो और शीतलता छा गई व वह ज़लाली हालत भी शान्त हो गई ।


परिणाम यह हुआ कि जब मैट्रिक पास करके आप आगरे के मेडिकल स्कूल में गये, उसके पूर्व ही आपको (रूहानी) इजाजत दे दी गई थी । जब आप मेडिकल स्कूल आगरे में पढ़ा करते थे तो सवेरे उठ कर नित्य नियम किया करते थे । आपका साथी (रूम मेट) आपकी खिल्ली उड़ाया करता था व परेशान किया करता था । एक दिन रात को, जब उसने बहुत शैतानी की तो आपने उसे तवज्जोह देनी शुरू की । वह अपनी चारपाई पर छटपटाने लगा । उसका दिल दब कर मरणासन्न हो गया । उसने आपसे अनुनय विनय की तो आपने उसकी हालत अच्छी कर दी । उस दिन से मेडिकल होस्टल में भी अन्य विद्यार्थी आप को मानने लगे ।


आगरा में वे पहले गोकलपुरा मोहल्ले में रहते थे, उनके पास मौजी राम नामक एक सहायक रहता था । एक दिन वे आसन पर पूजा करने बैठ गए माला जो खूंटी पर टंगी थी पास लेना भूल गए । उन्होंने मौजी राम से माला ला देने के लिए कहा । जब बहुत देर तक वह माला नहीं लाया तो आपने मौजी राम से पूछा कि माला क्यों नहीं दे रहा है । मौजी ने जवाब दिया कि खूंटी पर टंगी माला हाथ ही नहीं आ रही है । वह स्टूल पर चढ़ कर उसे उतारने की कोशिश भी कर चुका है । तब आपने उससे कहा कि तुमने अपने हाथ धो लिये थे या नहीं । उसने कहा कि वह लघुशंका करने के बाद हाथ धोना भूल गया था । उनके कहने से जब वह हाथ धो कर माला लेने पहुंचा तो माला सहज ही उसके हाथ आ गई जो उसने उन्हें दे दी । लालाजी महाराज भी उनके पास कई बार आगरा जाया करते थे ।


इसी प्रकार एक बार रतलाम में भी यादव लाल बरौदिया के घर सत्संग हुआ करता था । उसमें कालेज के एक मुस्लिम अध्यापक भी आया करते थे । डाक्टर साहब की फ्रेम जड़ित तस्वीर दीवार पर टंगी थी, जैसे ही उन मुस्लिम सज्जन ने डाक्टर साहब की टंगी हुई फोटो पर फूलों की माला चढ़ाने का प्रयत्न किया, वह तस्वीर भयंकर धमाके के साथ जमीन पर गिर कर चूर हो गई । सब चौंक गए । पूछने पर उन्होंने बताया कि वे अपवित्र हालत में बिना स्नान किए आए थे और माला चढ़ा रहे थे ।


सैलाना रावटी


मेडिकल स्कूल से अपनी शिक्षा समाप्त कर लेने के पश्चात् आपने होमियोपैथिक शिक्षा भी डिप्लोमा लेकर यथाविधि प्राप्त की । यह उपाधि लेने के बाद आप कुछ समय फुलेरा में अपने बड़े भाई श्रीहरप्रसाद जी साहब के साथ रहे । उसी समय रतलाम के पास मध्य भारत की एक छोटी-सी स्टेट सैलाने में मेडिकल ऑफिसर का पद रिक्त हुआ । समाचार पत्रों में उसका विज्ञापन छपा । उसे पढ़ कर आपने अर्जी भेजी और आपकी नियुक्ति मेडिकल ऑफिसर रावटी के पद पर हो गई । आप रावटी सर 1915 में पधारे । रावटी बम्बई दिल्ली लाइन पर एक छोटा सा स्टेशन है जो बम्बई की तरफ रतलाम जंक्शन से चौथा स्टेशन है । रावटी स्टेशन से रावटी गांव 5 मील दूर है वहाँ पैदल चल कर पहुँचना पड़ता था । रावटी के अस्पताल में आप डाक्टर थे । पं॰ रेवा शंकर जी (डॉ॰ शर्मा) आपके कम्पाउण्डर थे और पंडित हीरा लाल आपके यहाँ ड्रेसर थे । उसी समय रावटी में सेठ जगन्नाथ जी नाम के एक महानुभाव ठेकेदार थे । वे ही आपके मालवे में सर्वप्रथम शिष्य बने । बाद में पं॰ हीरा लाल तथा डॉक्टर शर्मा एक साथ आपके शिष्य हुए ।


पं॰ हीरा लाल जी आपके साथ ही रहते थे आपका भोजन बनाना आदि सब काम किया करते थे । एक दिन पं॰ हीरा लाल जी बावड़ी पर पानी भरने गये । उस बावड़ी में अन्दर नहाने की मनाही थी । हीरा लाल जी ने सोचा कि कोई देखता तो है नहीं, चलो बावड़ी के अन्दर ही नहा लिया जावे । उन्होंने बावड़ी में ही डुबकी लगा ली । नहा कर कंधे पर भरा हुआ पानी का बरतन रक्खे घर पहुँचे । श्रीमान डॉक्टर साहब ने आपको देखते ही पूछा, “क्यों भाई हीरा लाल बावड़ी के अन्दर नहाए या बाहर ?” पं॰ हीरा लाल जी ने सहज भाव से कह दिया कि - बाहर नहाया । इस पर डाक्टर साहब ने फ़रमाया कि - “भाई हम तो देख रहे थे कि तुम बावड़ी के अन्दर नहाये ?” इस घटना से पं॰ हीरा लाल की आन्तरिक आँखें खुल गई । आप उसी समय से श्रीमान् डॉ॰ साहब के शिष्य हो गये ।


एक बार रात के समय श्रीमान डॉ॰ साहब कृष्ण स्वरूप जी पं॰ गोरी शंकर जी से मिलने आए । मौसम कड़ाके की ठंड का था । पंडित जी खूब कपड़े पहन कर लिहाफ़ ओढ़ कर बन्द कमरे में सिगड़ी ताप रहे थे । आप आकर बैठे और आपने उनको तवज्जोह देना शुरू किया । परिणाम यह हुआ कि 10 मिनट में सब कपड़े उतार कर वे कमरे के बाहर टहलने लगे । पूछने पर बताया कि बहुत गर्मी मालूम होती है । जब आपने तवज्जोह देना बन्द कर दिया तो फिर धीरे-धीरे सब कपड़े पहन कर सिगड़ी तापने लगे । डॉ॰ रेवा शंकर को भी आपने दीक्षा दी थी । वे भी समाधि में इस प्रकार डूब जाया करते थे कि अस्पताल का समय हो जाने पर भी उनकी समाधि नहीं टूटती थी ।


रावटीवाले पं॰ हीरा लाल जी कहा करते थे कि “श्रीमान्” (मालवे वाले उन्हें इसी सम्बोधन से पुकारते थे) लगातार 12 वर्ष तक नहीं सोए । वे उनके पूजा के समय अजमेर से सशरीर रावटी उपस्थित होते थे व बाद में अन्तर्ध्यान हो जाते थे । पं॰ हीरा लाल जी स्वयं को चिकोटी काट कर देखा करते थे कि यह कहीं स्वप्न तो नहीं ।


यही बात यादव लाल जी ने, जो उस समय कोटा बैराज पर ओवरसीयर का काम करते थे, ने भी कही थी । वे कहते थे कि श्रीमान् कई बार पूजा के समय उनके पास सशरीर उपस्थित होकर, उन्हें हिदायत करके लुप्त हो जाते थे । तब श्रीमान् जयपुर में रहते थे ।


रावटी में श्रीमान् की प्रसिद्धि वहाँ के महाराजा साहब तक पहुँची । वे उन्हें बड़े आदर से पेश आते थे और श्रीमान् की बात कभी नहीं टालते थे । यहाँ तक कि धीरे-धीरे महाराज साहब श्रीमान् से अपने प्राइवेट सेक्रेटरी का काम भी लेने लगे थे । वे कहा करते थे कि “डाक्टर जो काम (साधना) तुम करते हो, वही मैं भी करता हूँ मगर मैं जाहिर में करता हूँ और तुम पोशीदा ।”


श्रीमान लालाजी महाराज रावटी में


परम संत महात्मा रामचन्द्र साहब भी, श्रीमान डॉ॰ साहब के आग्रह पर सन् 1930 में रावटी और सैलाना पधारे थे तो आपकी निगाह में वह आकर्षण था कि अनेकानेक सत्संगी दूर-दूर से आकर रावटी में एकत्रित होने लगे ।


कई हिन्दू, मुसलमान, ईसाई व हरिजन आपके प्रभाव में आकर सत्संग में शामिल हो गये, और आपने सब को अपने आत्मिक प्रवाह (रूहानी फ़ैज़) से तृप्त किया । चलते समय वे वहाँ का सत्संग हीरा लाल जी को सौंप गये क्योंकि श्रीमान डॉ॰ साहब अजमेर पधार गये थे ।


परम संत महात्मा रामचंद्र जी के पास रावटी में एक वृद्ध ब्राह्मण भगवान जी पटवारी आए जिनकी आयु 80 वर्ष की थी । उन्होंने विह्वल होकर नेत्रों में अश्रु भर कर महात्मा जी से निवेदन किया कि मुझे भी राम भजन सिखलाइये । महात्मा जी कुछ देर मौन रहे और फ़रमाया कि आपका शरीर तो बिलकुल काम नहीं देता है । आप क्या कर सकेंगे ? ये सुन कर वह वृद्ध फूट-फूट कर रोने लगे और महात्मा जी के चरण पकड़ लिये । महात्मा जी ने उनकी पीठ ठोक कर फ़रमाया कि “जाओ आप का सब काम बन गया ।” उन वृद्ध के चले जाने के बाद आपने पं॰ हीरा लाल जी से फ़रमाया कि “भाई हमने इन वृद्ध का काम पूरा कर दिया क्योंकि इनसे अब कुछ हो नहीं सकता था ।”


जब महात्मा रामचन्द्र जी सत्संग के सिलसिले में रावटी से सैलाना पधारे तो श्रीमान् डाक्टर साहब के बड़े भाई होने के नाते आपसे मिलने राज्य के बड़े-बड़े अधिकारी आये । इस समय तक श्रीमान डॉ॰ साहब की रूहानी शोहरत भी खूब हो चुकी थी । सैलाना स्टेट के न्यायाधीश पं॰ गोवर्धन लाल जी भट्ट थे । वे भी महात्मा जी का नाम सुन कर उनके पास आए और राम नाम सिखाने के लिये अर्ज़ किया । जब महात्मा जी ने आपको तवज्जोह दी तो आपका दिल विशेष कठोर प्रतीत हुआ । आपने जज साहब को तत्काल डॉ॰ साहब के पास जाने का आदेश दिया क्योंकि डॉ॰ साहब की तवज्जोह बड़ी सख्त व तेज हुआ करती थी और वह पत्थर से हृदय को भी पिघला कर मोम कर देती थी । बुरे से बुरे संस्कारों को बात की बात में खाक कर देती थी । श्रीमान जज साहब को डॉक्टर साहब ने आँख बन्द करके बैठने का आदेश दिया और आपने जोर की तवज्जोह देना प्रारंभ किया । जज साहब के दिल में से संस्कारों के जलने का ऐसा काला धुआं निकला जैसा रेल के इंजन में से निकला करता है । उस दिन से जज सा भी सत्संग में शामिल हो गये ।


रावटी में लालाजी महाराज ने दिगन्त को अपने नूर से आप्लावित कर दिया । वह असर आज तक अनुभव किया जा सकता है ।


श्रीमान् डॉक्टर साहब जब रावटी में निवास करते थे उस समय पं॰ हीरा लाल जी तथा डॉ॰ शर्मा ने आपकी इतनी सेवा की, कि आप उन से अत्यधिक प्रसन्न थे । पं॰ हीरा लाल जी ने अपना सर्वस्व आपको अर्पण कर दिया था ।


एक समय आपने फ़रमाया कि जब मैं महात्मा जी का ख्याल (ध्यान) करता हूँ तो उनकी जैसी शकल हो जाती है और जब मौलवी साहब मौलाना परम संत फज़्ल अहमद खाँ साहब का ख्याल करता हूँ तो उनकी जैसी शकल नजर आने लगती है । रावटी में आपने पाँच बरस निवास कर मालवे के सैकड़ों जीवों का उद्धार कर दिया । उसके बाद आप सैलाना राज्य से नौकरी छोड़ कर अजमेर पधार गये ।


रावटी छोड़ कर डाक्टर साहब अजमेर चले आए । जिस मकान में वे रहे उनके मालिक का लड़का आवारा होकर घर से भाग गया । मकान मालिक ने किसी अवधूत के पास जाकर उसका हाल पूछने के लिए डाक्टर साहब को साथ ले जाना चाहा । डाक्टर साहब ने बहुत मना किया मगर वे नहीं माने । उन्होंने कहा भी कि मेरे जाने से आपका काम नहीं होगा । जब डाक्टर साहब गए तो अवधूत एक छोटे से मन्दिर में बैठे थे । इन्होंने सलाम किया तो वे पीछे घूम कर बैठ गए । इन्होंने फिर सामने जाकर सलाम किया तो अवधूत वह स्थान छोड़ कर भाग गए । कारण यह था कि सालिक के सामने मज्जूब (अवधूत) नहीं टिक सकते ।


अजमेर में ही एक जटा जटाधारी सन्यासी डाक्टर साहब के पास आए और उनका शिष्य बनने की इच्छा जाहिर की । डाक्टर साहब ने कहा कि वे तो एक गृहस्थ हैं और इस बारे में वे क्या जानें । सन्यासी जी ने कहा कि वे उनका पीछा छोड़ने वाले नहीं हैं क्योंकि उन्होंने डाक्टर साहब की प्रयाग के कुंभ के अवसर पर बहुत तारीफ सुनी है । डाक्टर साहब ने अन्ततः उनसे पूछा कि क्या उनके कोई गुरु हैं ? उनके हाँ कहने पर उन्होंने कहा कि जाओ पहले उनसे मेरा शिष्य बनने की अनुमति लेकर आओ । कई वर्ष बाद जब रमते राम उनके गुरु उन्हें मिले तो वो संन्यासी जी उनसे अनुमति प्राप्त कर डाक्टर साहब के शिष्य बने । ये ही स्वामी गंगा भारती जी के नाम से जाने जाते हैं । इनका राजगढ़ (अलवर) में अवधूत आश्रम नामक आश्रम है, वह आज भी मौजूद है । स्वामी जी भी देह त्याग चुके हैं । आश्रम में डाक्टर साहब की फोटो की सुबह-शाम घंटे-घड़ियाल के साथ आरती होती थी । डाक्टर साहब को जब यह बात मालूम हुई तो उन्होंने भारती जी से अप्रसन्नता जाहिर की और पूजा में से अपनी फोटो हटवा दी ।


भारती जी ने देखा कि यह विद्या वैरागियों की नहीं वरन् गृहस्थों की है तो उन्होंने श्रीमान से पूछा कि यदि आवश्यक हो तो मैं यह बाना बदल लूं और गृहस्थ बन जाऊं । श्रीमान ने आपको इसी भेष में रहकर संन्यासियों में भी इसका प्रचार करने की आज्ञा दी । भारती जी इस भेष में अपने शरीरान्त तक इस आज्ञा का पालन करते रहे । संन्यासी समाज में आपके इस नये प्रकार के अध्यात्म के प्रति बड़ा आदर है । सर 1977 में ही आप (बाबा जी) का 90 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हुआ । सन् 1940 में एक बार श्रीमान के साथ मैं भी राजगढ़ गया । एक पंडित जी भी हमारे साथ गये । बाबा 'जी का व्यवसाय तो रहा मन्दिर की पूजा और हमारे इस अध्यात्म में मूर्ति-पूजा के लिए कोई स्थान ही नहीं, पर वे उसे छोड़ भी नहीं सकते थे क्योंकि उनके संन्यास देने वाले गुरु की उन्हें यह देन थी । श्रीमान की आज्ञा से वे मन्दिर की पूजा इस प्रकार करते थे जैसे हम सब गवर्नमेन्ट की नौकरी, दुकान, वकालत, डाक्टरी आदि करते हैं तथा अध्यात्म का अभ्यास तथा प्रचार उनका निजी कार्य था । यह अद्भुत समन्वय हमने और कहीं नहीं देखा । श्रीमान के साथ गृहस्थ अनुरूप हमारा भी स्वागत तथा सेवा सुश्रूषा हुई । बाबा जी आयु में श्रीमान से बड़े थे परन्तु हर समय सेवा में ऐसे खड़े रहते थे कि हमें तो अपने सामने उनको संन्यासी भेष में इस प्रकार अपने आप को प्रस्तुत करते देख लज्जा अनुभव होती थी ।


अजमेर में ही बस्वा (बांदीकुई) के एक पहुँचे हुए संत अर्जुनदासजी भी डाक्टर साहब के घर दर्शन के लिए आया करते थे । ये सब लोग कभी-कभी उनके आश्रम बस्वा जाते थे । वहाँ उन दिनों बहुत बाघ थे । वे सब अर्जुनदासजी की आज्ञा का पालन करते थे । बाबाजी जब हारमोनियम बजाते, तो टेकरी पर बने मन्दिर में चारों ओर बाघ उन्हें घेर कर बैठ जाते थे और अहिंसक हो जाते थे ।


जब डाक्टर साहब अजमेर में थे तो जयपुर के स्टेशन मास्टर अपनी फरियाद लेकर उनके पास पहुँचे । यह 1930 के आसपास की बात है । डाक्टर साहब उस समय जयपुर स्टेशन मास्टर के यहाँ आकर ठहरे भी थे । उनकी लड़की का विवाह लखनऊ में हुआ । खानदानी कोठी थी, वहाँ एक ब्रह्म राक्षस उस लड़की को सताया करता था । कभी गिरगिट बन कर तवे पर बैठ जाता कभी खाने की थाली में विष्ठा डाल देता । कभी दीवार में से केवल एक हाथ निकाल कर कहता कि तेरा बच्चा मुझे दे दे । कभी त्रिपुंडधारी कोपीनधारी ब्राह्मण के रूप में नजर आता । मकान पुश्तैनी था, इसलिए उसे छोड़ा भी नहीं जा सकता था । सोच-विचार कर डाक्टर साहब ने स्टेशन मास्टर साहब को कहा कि अपनी लड़की को लिख भेजे कि जब कभी वह ब्रह्मराक्षस दिखाई दे तो लड़की उसे यह कह दिया करे “अजमेर के डाक्टर कृष्ण स्वरूप ने तुम्हें सलाम भेजा है ।” उसने ऐसा कहा ही था कि ब्रह्मराक्षस वहाँ से गायब हो गया और उसे उससे मुक्ति मिली ।


अजमेर में आप जनरल इन्श्योरेन्स सोसाइटी में रेकॉर्ड कीपर हो गये । आपने प्राइवेट दवाखाना भी खोला, जहाँ आप सबेरे शाम बैठा करते थे । इसके बाद प्रिय सत्संगी भाई ठा॰ मूल सिंह जी, जो श्रीमान् कानपुरवासी पूजनीय चच्चा जी महाराज के शिष्य थे आपको आग्रह पूर्वक अजमेर से जयपुर ले आए ।


महात्मा आनंद भिक्षु जी


जब श्रीमान् डाक्टर साहब अजमेर में निवास करते थे तो एक बार श्री राम कृष्ण मिशन के उपदेशक महात्मा आनंद भिक्षु जी अजमेर में पधारे और उनके व्याख्यान होने लगे । उन्हें सुनने को आप भी जाया करते थे । महात्मा आनंद भिक्षु को यह पता लगा कि यहाँ भी एक बहुत बड़े संत निवास करते हैं तो आप श्रीमान् डॉ॰ साहब से मिलने गये । उसके पूर्व आपने कई प्रश्न वेदान्त और रूहानियत पर सोच लिये कि ये जाकर श्रीमान् डॉ॰ साहब से पूछेंगे । जैसे ही आनंद भिक्षु श्रीमान् के निवास स्थान पर पहुँचे तो कुशल प्रश्न के बाद इधर उधर की बातें करके एक-डेढ़ घंटे तक बैठ कर वापस चले गये और कोई प्रश्न आपसे नहीं पूछा । फिर जब वे अपने ठहरने के मुकाम पर गये तो ख्याल आया कि अरे ? मैंने तो उनसे कोई प्रश्न ही नहीं पूछा ।


दूसरे दिन सब प्रश्न कागज पर नोट करके ले गये । फिर भी श्रीमान् डॉ॰ साहब से कोई प्रश्न नहीं पूछा । तीसरे दिन वे केवल डॉक्टर साहब से यह करिश्मा होने का कारण पूछने को आए और आते ही बड़े ही नम्र भाव से पूछने लगे कि मैं परीक्षा लेने के लिये यह प्रश्न नहीं पूछना चाहता था । आपके शिष्य के रूप में जिज्ञासु की तरह पूछना चाहता था अतएव मुझे भी उपदेश दीजिये । श्रीमान् ने उनका संतोष किया । उनके जाने के बाद किसी शिष्य ने पूछा कि महात्मा आनंद भिक्षु जी प्रश्न क्यों नहीं पूछ पाए तो श्रीमान् डॉ॰ साहब ने कहा “हम पूछने देते तब न !”


एक बार पूजनीय डॉ॰ साहब के साथ कुछ लोग देहली गये, वहाँ परम संत निजामुद्दीन औलिया साहब की समाधि पर गये । जैसे ही समाधि के अहाते में पहुँचे, जोर का सन्नाटा सारे शरीर में महसूस होने लगा । समाधि पर पहुँचते पहुँचते तो लोग गिरने से लगे । जब तक समाधि पर बैठे रहे, अजीब कैफियत गुज़रती रही । उसके बाद सात दिन तक सभी की यह हालत रही कि मानो बिजली के करंट पर हाथ रक्खा हो । ऐसा सारे शरीर में झन्नाटा होता रहा । इसी प्रकार श्रीमान् के साथ उजैन, में मछंन्दरनाथ जी की समाधि पर भी शिष्य गण गये थे तो वहाँ भी आपने सब सत्संगियों को रूहानियत से फैज़याब कर दिया था ।


श्रीमान् डॉ॰ साहब का स्वभाव अत्यन्त सरल व विनोदी था । एक बार कुछ लोग आपके साथ बैल गाड़ी में बैठ कर मंडावल एक सत्संगी बन्धु के सुपुत्र के यज्ञोपवीत में जा रहे थे । रास्ते में कुछ दूरी पर जोर की दावाग्नि लगी हुई थी । आपने फ़रमाया कि “कहो तो हम इसे बुझा दें । “एक सत्संगी ने कहा-”बुझा दीजिये । जाने कितने पशु-पक्षी जल रहे होंगे ।” आपने उसी वक्त उंगली का इशारा किया और दावाग्नि बुझ गई । आप अत्यन्त परदुःख कातर थे । किसी दुखिया की आवाज आप फौरन सुनते थे । और जी जान से उसकी सहायता करने को जुट जाते थे । आपकी दुआ से और बुजुर्गान की मेहरबानी से श्री भूल सिंह जी पर डाला गया झूठा कत्ल का मुकदमा समाप्त हो गया ।

सेवकों पर तो अनेक विपत्तियाँ आईं । वे सब आपकी दुआ से ही दूर हुई । श्रीमान डॉ॰ साहब इतने उच्च कोटि के सन्त थे तो भी अपने आपको इस खूबी से छिपा कर रखते थे कि कोई जान भी नहीं पाता था कि आप इतने बड़े हैं । आप गुदड़ी के लाल थे ।


आपकी शिक्षा

आप में गुरुडम बिल्कुल नहीं था । न आप किसी से कुछ इच्छा रखते थे । जो खुशी से भेंट करता था उसे भी अनिच्छा पूर्वक ग्रहण करते थे । ग़रीबों की भेंट तो आप केवल हाथ से स्पर्श करके लौटा देते थे । अजमेर व जयपुर में जब आप दवाखाना चलाते थे तो आपने कभी किसी से फीस नहीं ली ओर न दवाइयों के पैसे माँगे । जो चाहे दे, न चाहे न दे । इस प्रकार जयपुर व अजमेर में आपके दवाइयों के हज़ारों रुपये डूब गये परन्तु आपने कोई शिकायत या पछतावा नहीं किया । आपका जीवन इतना सादा था कि उसमें दिखावा या बनावट का कोई स्थान ही न था । आपका उपदेश हमेशा यह रहता था कि जबानी जमा खर्च से काम नहीं चलेगा । मानव का जीवन अमली (Practical) होना चाहिये । आप समय के सदुपयोग पर बहुत जोर देते थे । बेकार कामों में समय बिताना आप अनुचित समझते थे । संयम पूर्ण जीवन व्यतीत करने पर भी आप अधिक बल देते थे । मन को वश में करने का आप यह सरल उपाय बताया करते थे कि मन जब कोई चीज माँगे उसे न दो । वह अपने आप ठीक राह पर आ जायेगा ।


आपके उपदेश की यह विशेषता थी कि साधक की जिस प्रकार की दिली या रूहानी हालत होती थी उसको वैसा ही अभ्यास बताया करते थे । फिर धीरे-धीरे उसको ठीक राह पर लाते थे । जो सत्संगी कर्मकांड के प्रेमी होते थे उनको आप कर्मकांड में लगा देते थे । जिसे करते करते साधक की वृत्ति बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी वृत्ति हो जाती थी । वह कर्मकांड पर से उपासना पर आ जाता था । आपके कई पण्डित शिष्यों को आपने गायत्री मंत्र का जाप करने की आज्ञा दी परन्तु साधक जब संध्या वंदन करके गायत्री जाप करने बैठता था तो आधी माला भी पूरी नहीं कर पाता था कि समाधि लग जाती थी । इस प्रकार की आप रूहानी तालीम देते थे । आपके प्रभाव में आकर कई शराबियों ने शराब छोड़ दी । आपने कभी यह नहीं फ़रमाया कि तुम शराब पीना छोड़ दो । आपका तो यह विश्वास था कि तुम चाहो जितनी शराब पिओ हम में ताकत होगी तो हम छुड़ा देंगे । इस तरीके से आपने हज़ारों गिरे हुए जीवों का उद्धार किया ।


जब आपका निवास जयपुर में था तो आपकी सेवा में कई राजा, जागीरदार वकील, प्रोफेसर, कलक्टर, डाक्टर व जज सत्संग के लिए हाजिर हुआ करते थे । एक बार जो आपके पास आकर बैठ गया वह आपकी बातों को सुन कर इस प्रकार आकर्षित हो जाता था कि उसकी आपके पास से उठ कर जाने की तबियत नहीं चाहती थी । एक बार आपके दर्शन कर लेने पर आपकी बातें सुन लेने पर बार बार आपके पास जाकर आपकी बातें सुनने को तबियत चाहती थी । एक स्थान पर जिक्र आया है कि हर कदम पर आप 60 मंत्रों का पाठ करते हुए चला करते थे ।


एक बार जनाब किबला परम संत मौलवी अब्दुल ग़नी खाँ साहब (आपके चाचा गुरु) जयपुर में आपके निवास स्थान पर पधारे । उस समय एक अन्धे वैद्य जी आपके कमरे में साधना में लगे हुए थे । मौलवी साहब ने मकान की सीढ़ियाँ चढ़ते हुये फ़रमाया “जनाब डाक्टर साहब ये कौन बुजुर्ग आपके यहाँ तशरीफ  फ़रमाते हैं जिनके सीने पर चार चिराग मुतवातिर रोशन हुए मालूम हो रहे हैं ?” श्रीमान डाक्टर साहब ने फ़रमाया कि इनको साधन करते केवल कुछ हफ़्ते हुये हैं कि इनके चारों लतीफ़े जागृत (ज़ाकिर) हो गये हैं । मौलवी साहब ने फ़रमाया “वल्लाह ! इस क़दर आपकी तालीम का जिन्दा जादू आनन फानन करिश्मा बतलाता है ।” श्रीमान डाक्टर साहब ने फ़रमाया यह सब आपके चरणों की कृपा है । हुजूर शाह अब्दुल ग़नी साहब ने फ़रमाया था “डाक्टर साहब आप राजपूताना (तब यही नाम था) व मालवा के 'क़ुतुब' हैं । “ एक बार यही मौलवी साहब शाहपुरा के राजा साहब के यहाँ निमन्त्रण से पधारे । वहाँ पधारने पर आपने शाहपुरा के दरबार (जागीरदार साहब) को तवज्जोह दी । कोई असर नहीं हुआ । आपने झट फ़रमाया “भाई दरबार साहब, यह इलाका डाक्टर साहब का है, मैं उनकी इजाजत


के बिना कोई रूहानी काम नहीं कर सकता । आप मोटर भेज कर फौरन उन्हें बुलवाइये ।” श्रीमान डाक्टर साहब जयपुर से शाहपुरा उसी वक्त लाये गए और मौलवी साहब की आज्ञा से शाहपुरा दरबार को आपने तवज्जोह दी । यह अनुशासन है इस तरीके का । एक बार परम संत महात्मा जी (पू लालाजी) के शिष्य 'न चतुर्भुज सहाय साहब, श्री जगन्नाथ प्रसाद माथुर, सेशन जज के साथ जयपुर में श्रीमान् डाक्टर कृष्ण स्वरूप साहब के निवास स्थान पर पधारे । आपसे अर्ज किया कि मैं आपकी इजाजत से जयपुर में भंडारा करना चाहता हूँ । आपने फ़रमाया “खुशी से कीजिए ।” और आशीर्वाद भी दिया ।


आप का यह अटल सिद्धान्त था कि इंसान सब कुछ कर सकता हैं । वह नर से नारायण हो सकता है । जिस तरह बुनियादी बातों में मन लगाया जाता है उसी तत्परता व एकाग्रता के साथ रूहानियत का साधन किया जावे तो कोई कारण नहीं कि इन्सान को सफलता न मिले । दत्तचित्त होकर साधन नियमित रूप से करना चाहिये । संशय से काम नहीं चलेगा । जहाँ तक मन के रोक थाम का सवाल है आपका यह उपदेश था कि मन का स्वभाव चंचल है वह एक जगह ठहर नहीं सकता और न ही विकल्प से खाली रह सकता है । इसलिए सबसे पहले उसकी एक जगह बैठने की आदत डालो अर्थात् अपने इष्टदेव गुरुदेव की शकल पर उसे पहले जमाओ । जैसे ही आपने श्रद्धा, विश्वास तथा प्रेम के साथ अपने गुरुदेव पर मन को जमाया कि उसकी एक जगह बैठने की आदत पड़ जाएगी । तुम्हारे पूज्य गुरुदेव उसकी कुछ खास सम्हाल करेंगे । कुछ तुम प्रयत्न करो । इस प्रकार दोतरफा कार्यवाही से मन ठहरने लगेगा । उसमें आत्मानंद की लहरें उठने लगेंगी । वह बहिर्मुखी से अन्तर्मुखी हो जायेगा । एक बार आत्मानंद का अलौकिक स्वाद चखा देने पर वह बार बार उसी स्थिति को प्राप्त करने का प्रयत्न अपने आप करने लगेगा । कुछ समय में ऐसा अभ्यास हो जायेगा कि वह दुनियावी काम करते हुए हमेशा आत्मानंद की स्थिति में रहने लग जायेगा । इस प्रकार तुम्हारा काम धीरे धीरे बन जायेगा । यदि तुम मन को किसी एक स्थान (अपने इष्टदेव गुरुदेव से उत्तम स्थान कोई नहीं है) पर टिकाने का अभ्यास नहीं करोगे तो वह इधर उधर भागता रहेगा । उसकी संकल्प शक्ति निर्बल हो जायेगी । तुम में अभ्यास और साहस की कमी हो जायेगी । तुम को दीन दुनियाँ के हर काम में असफलता मिलेगी और तुम कहीं के नहीं रहोगे । आप मन के साथ जबरदस्ती करने का उपदेश नहीं देते थे । उसको फुसला कर या पलट कर ठीक राह पर लाने का आदेश देते थे ।


गुरु में लय


आप स्वयं अपने पूज्य गुरु महाराज में तथा महात्मा जी में इतने लय हो जाते थे कि उन्हीं की शकल बन जाती थी । एक बार एक सेवक ने ध्यान में आपके चेहरे पर दाढ़ी लगी हुई देखी । जब ध्यान समाप्त हुआ और उस सेवक ने पूछा आज मुझे आपके चेहरे पर दाढ़ी कैसे नजर आई तो फ़रमाया “मैं उस वक्त गुरु महाराज के ख्याल में था । उनके चेहरे पर दाढ़ी थी इसलिए आपको भी मेरे चेहरे पर दाढ़ी दिखाई दी ।” गुरु भक्ति व आज्ञाकारिता आप में कूट कूट कर भरी थी । आपका फरमाना था कि इसके बिना कोई साधक अपने गुरु से यथोचित लाभ नहीं उठा सकता । यदि उसमें यह दोनों बातें नहीं होंगी तो वह मनमुखी होकर एक न एक दिन मारा जायेगा । अतएव साधक को हमेशा गुरुमुख रहना चाहिये । अटल श्रद्धा विश्वास व भक्ति के साथ उनकी आज्ञा का पालन दीन व दुनियाँ के कामों में करना चाहिये । फिर देखिये आपकी दुनियावी व रूहानी आपत्तियाँ हट कर कैसी तरक्की होती है । आप अत्यन्त दयालु व कृपालु थे । ग़रीबों का दुःख देख कर आप रो पड़ते थे और उनके दुःखों को दूर करने के लिए अपनी जिस्मानी कमजोरी व बीमारियों की तकलीफों की परवाह न करके दिन रात दुआ किया करते थे । आपकी दुआ के जिन्दा जादू का एक बार नहीं अनेक बार अनुभव किया गया । आप कभी भी किसी से नकद या भेंट पूजा-सम्मान आदि नहीं लेते थे । दवाई आदि की सेवा की कीमत भी नहीं ।


आपके कश्फ का यह हाल था कि सत्संग में बैठने वाले प्रत्येक व्यक्ति के दिल व ख्यालात का उन्हें पूरा पता रहता था । कभी किसी के ख्याल में पूजा करते समय पतंग उड़ाने का अथवा मसाला पीसने का ख्याल आदि आ जाता तो बिना नाम बताए वह कह दिया करते कि कम से कम पूजा के समय तो मसाला न पीसा करें । एक समय कहा पूजा के समय पतंग तो न उड़ाया करो, सुनने वाले शर्मिंदा हुए । जिसकी जैसी रुचि अथवा शक्ति होती उसी के अनुरूप पूजा का साधन बता देते थे । एक अत्यन्त वृद्धा स्त्री को उन्होंने मछलियों को खिलाने के लिए राम नाम लिखित परचे की आटे की गोलियाँ बता दी, किसी को केवल माला फेरना, किसी को ध्यान ।


एक बार साँभर में पोस्ट मास्टर राम लाल जी, जो कई घाटों का पानी पिए हुए थे-जैसे नानकपंथ कबीर पंथ आदि-आदि, ने उनसे कहा कि मुझे तो एक चीज की बड़ी तमन्ना है जो आज तक पूरी नहीं हुई । वह थी 'अनहद शब्द' को सुनना । डाक्टर साहब ने उसी समय उन्हें यह कह कर ध्यान में बैठाया कि यह तो बड़ी छोटी चीज है । ध्यान में उन्हें अनहद शब्द स्पष्ट सुनाई पड़ा और उन्होंने डाक्टर साहब के चरण पकड़ लिए ।


जयपुर में ठाकुर कुशल सिंह जी थाना सदर के इंचार्ज थे । उन्होंने बड़े इसरार से उनसे कहा कि एक शाह साहब चान्दपोल दरवाजे बाहर आकर ठहरे हैं । उनकी बड़ी शोहरत है । वे हर किसी से हाथ मिलाते ही, आगे-पीछे का उस व्यक्ति का हाल बता देते हैं । उनके अधिक इसरार पर डाक्टर साहब भी शाह साहब से मिलने गए । उनसे हाथ मिलाते ही उनकी वह सारी शक्ति गायब हो गई । शाह साहब उसी रात शहर छोड़कर गायब हो गए ।


उनके कुछ लेखों का संग्रह 'संत वाणी संग्रह' प्रथम भाग के रूप में, व एक पुस्तक 'फकीरों की सात मंज़िलें' प्रकाशित हो चुकी है ।


सल्ब करना

सन् 1956 के आरम्भ में एक दिन मैं श्रीमान् के पास में बैठा था कि अचानक आपने मुझसे प्रश्न कर दिया, “बाबू हरनारायण ! तुम्हें सल्ब करना आता है ?” मैंने उत्तर में केवल सिर झुका लिया । मुझे इसकी विधि पूर्णतया मालूम थी, परन्तु किसी गुरु पदवी के महात्मा ने मुझे इसका अधिकार नहीं दिया था । मैंने कई वरिष्ठ अभ्यासियों को तथा अध्यात्म के शिक्षकों को सल्ब करते देखा भी था । अतः मैं यह तो कह नहीं सकता था कि मुझे नहीं मालूम । श्रीमान ने मेरा भाव तुरन्त पहिचान लिया और कहा “इसमें क्या है, ऐसे होता है (गर्दन घुमाकर) जब आवश्यक समझो, कर लिया करो ।”


सल्ब करने का मतलब है किसी के शरीर से रोग अथवा कष्ट को निकाल देना । हमारे अध्यात्म में यह साधारण सी क्रिया है । परन्तु इस का खेल करना और दुनियाँ में यह दिखलाना कि देखो हम यह भी कर सकते है इसकी कड़ी मनायी है । इस प्रयोग को अनुचित रूप से करने पर यह शक्ति जैसे दी जाती है वैसे ही वापिस भी ले ली जाती है ।


सर 1958 में श्रीमान कुछ अस्वस्थ रहने लगे । उस समय आपके दोनों सुपुत्र जयपुर से बाहर ट्रांसफर ड्यूटी पर थे । अतः आपके इलाज आदि का भार मुझ पर आया । आफिस जाते समय आपका सारा विवरण लेता । फिर डाक्टर से कह कर दवा लेता । आफिस पहुंच कर दवा श्रीमान के पास भेज देता । लौटते समय सीधा आपकी सेवा में उपस्थित होता । आप संध्या की चाय अधिकतर मेरे ही साथ पीते और प्रतीक्षा करते रहते ।


एक बार जब आफिस से आपकी सेवा में पहुँचा तो आप कुछ अधिक अस्वस्थ होने के कारण अचेत से पड़े थे । मुझे तुरन्त याद आया कि मैं सल्ब करने का अधिकार पा चुका हूँ । तीन चार साँसे खेंचने पर ही आप में चेतना आ गई । पूछा, तुम कब से खड़े हो ? निवेदन किया, अभी आया हूँ । इस प्रकार मुझे कई बार श्रीमान के कष्ट को सल्ब करना पड़ा । अब भी जब आवश्यकता होती है इस कार्य को कर लेता हूँ तथा श्रीमान की याद उस समय ऐसी आती है कि जैसे वे मेरे पास खड़े ही नहीं वरन् मुझ में समाये हुए हों और सल्ब करा रहे हों ।


भक्त श्री किशन-पुलिस कान्सटेबिल


बहुत से पुलिस कर्मचारी आपकी सेवा में सत्संग के लिए आते थे । ये सब इस विभाग के कर्मचारियों पर भाई साहब परम सन्त श्रीमान ठा॰ रामसिंह जी और बाद में उनके साथ-साथ सुपरिन्टेण्डेंट साहब ठाकुर मूलसिंह जी के शुभ प्रभाव के कारण ही था । अन्यथा इस विभाग के कर्मचारियों का मार्ग (आचरण) थोड़ा अन्य प्रकार का ही देखा गया है । इन्हीं लोगों में एक कान्सटेबिल श्री किशन नाम का भी आपके पास आया करता था । वह सुपरिन्टेण्डेंट साहब की सेवा में था व हिम्मत करके श्रीमान से निवेदन कर बैठा कि मुझे भी कुछ बताइए । आपने उसे भी ध्यान करा दिया और नित्य करते रहने का आदेश दे दिया । श्री किशन के संस्कार कुछ अच्छे थे । अतः थोड़े दिनों में ही इसका अभ्यास परिपक्व हो गया तथा समाधि की अवस्था सहज में ही आने लगी । ड्यूटी पर खड़े-खड़े समाधि लग जाती थी ।


सन् 1940 के पहले की बात है । उन दिनों श्री किशन की ड्यूटी पुलिस लाइन में थी । प्रातः काल ही परेड होती, उसमें लाइन वालों की उपस्थिति अनिवार्य होती । यह श्री किशन भी नित्य प्रति समय पर जाता । एक दिन प्रातः जो पूजा ध्यान में बैठा तो ऐसी समाधि लगी कि धूप निकल आई और परेड आदि समाप्त होने के बाद ही आँख खुली । श्री किशन मन में घबराया कि आज की अनुपस्थिति का दण्ड भोगना पड़ेगा-क्या हो कितना हो ? पर चूक तो हो गई, उसके लिए अब कुछ नहीं हो सकता था । वह डरते-डरते अपने साथियों से कह रहा था कि “आज परेड चूक गया जाने क्या और कितना दण्ड मिलेगा ।” साथियों ने व्यंग किया आज तूनें कितनी भांग पी, जो बहकी-बहकी बातें कर रहा है ? हमारे साथ परेड की, और कहता है मुझसे चूक हो गई । श्री किशन को कैसे विश्वास होता ? उसने अपने हवलदार के पास जाकर रजिस्टर में अपनी उपस्थिति भी देखी और उपस्थिति नियमित देखकर अचम्भे में पड़ गया । अपनी बैरक में आकर बड़ी देर तक इसी विषय पर सोचता और रोता रहा । अन्त में निर्णय लिया कि मुझे ऐसी नौकरी ही नहीं करनी जिसमें मेरे गुरु भगवान को नौकरी देनी पड़े । नौकरी से त्यागपत्र लिखा, कार्यालय में दिया और वहाँ से चल दिया । साथियों ने तथा अन्य वरिष्ठ कर्मचारियों ने समझाने की चेष्टा की परन्तु श्री किशन का निर्णय नहीं बदला । वह तो अपने गुरुदेव को अपने स्थान पर नौकरी करना, किसी भाँति भी सहन (बरदाश्त) नहीं कर सकते थे ।


जब किसी प्रकार भी श्री किशन को नौकरी करते रहने को नहीं मनाया जा सका तो पुलिस अधिकारियों, जिनमें सुपरिन्टेण्डेंट ठाकुर मूलसिंह जी प्रमुख थे, ने प्रयत्न करके श्री किशन की पेन्शन करा दी जो उस समय केवल चार रुपये मासिक थी, और बाद में 300 रुपये मासिक हो गई । श्री किशन ने उसके बाद कोई नौकरी नहीं की । आपने गाँव 'सेंतीवास' चले गये जो अब तहसील टोडाराय सिंह जिला टौंक में है । वह हमारे पास और गुरु महाराज के परिवार के सदस्यों के पास आते रहते थे । ऐसे प्रेमी भक्त कम ही देखने में आते हैं । गुरु कृपा का महत्व भी ऐसे ही लोगों में देखने को मिलता है । सन् 1968 के बाद वह नहीं आये सम्भवतः अब वह नहीं है । 


ठाकुर साहब मूलसिंह जी


हमारे यहाँ, जयपुर में एक ठाकुर साहब मूलसिंह जी कई वर्षों से जयपुर में स्टेट के समय में पुलिस विभाग में सुपरिन्टेण्डेंट रहे थे । वे अपने आरंभिक जीवन में ये बड़े कठोर (सख्त) प्रकार के पुलिस ऑफिसर कहे जाते थे । उन्होंने स्वयं ही हमें बतलाया था कि सन् 1929 में जब श्रीमान लाला जी महाराज का इधर पधारना हुआ उस समय पूज्य भाई साहब ठाकुर रामसिंह जी ने इनसे निवेदन किया कि गुरु महाराज पधारे हैं आप भी दर्शन कर लीजिए । उत्तर मिला कि उन्हें मेरे दर्शन के लिये जब आपको सुविधा हो ले आना । भाई साहब ठा॰ रामसिंह जी उनके इस कटु उत्तर को सुन कुछ न कह कर चुप हो गये । गुरुदेव (श्रीमान लाला जी महाराज) के निर्वाण के भी कुछ वर्षों पीछे इन्हीं ठाकुर साहब मूलसिंह जी को इस अध्यात्म की ऐसी लगन तड़प लगी कि भाई साहब ठाकुर रामसिंह जी के पास आकर बड़ा पश्चाताप किया और बोले, “मुझे तो आप ही अभ्यास बतलाइये । वह अनमोल अवसर तो मैंने दुर्भाग्यवश खो दिया अब मुझे आप सही रास्ते पर लगाइये ।”


सुपरिन्टेण्डेंट साहब, ठाकुर मूलसिंह जी ने स्वयं मुझे यह सारी बातें बतलाई और वे सदा ही हमारे गुरुदेव के प्रति अपने इस व्यवहार के लिये लज्जित होते रहे । आपका एक और कथन हम सब को नोट कर लेने योग्य है कि “हम खूब गोश्त खाते, शराब पीते थे और यह समझते थे कि ऊपर की आमदनी न हो तो कैसे परिवार का निर्वाह होगा ? परन्तु इस सत्संग में आ जाने के पश्चात् यह सारी बातें छोड़ देने पर भी हम देखते हैं कि हम पहले से कहीं अधिक प्रसन्न तथा सुखी हैं । आराम से हमारा निर्वाह उसी वेतन में हो जाता है ।”


इन ठाकुर साहब मूलसिंह जी (जिनकी हमारे पूज्य डाक्टर साहब को अजमेर से लाने और जयपुर में बसाने में प्रमुख भूमिका थी) ने पूज्य डाक्टर साहब की बड़ी सेवा की । अध्यात्म मार्ग में श्रीमान ने भी उन की पर्याप्त सहायता की, यहाँ तक कि इन्हें अभ्यास आदि बतलाने की भी आज्ञा दे दी । हमने ठाकुर साहब को उनके अन्तिम दिनों में भी उनके ग्राम मेहरीली जाकर देखा । वे अपने ध्यान में ऐसे मस्त रहते थे कि उन्हें महात्मा कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी । अवश्य ही इन्हें हमारे श्रीमान पूज्य डाक्टर साहब ने पूर्ण कर दिया था ।


फकीरों की सात मंज़िलें


श्रीमान ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम 'फकीरों की सात मंज़िलें' है । यह पुस्तक आपने उन दिनों में लिखी जब आपकी दृष्टि मन्द हो रही थी । मोतिया-बिन्दु बढ़ गया था । इन्हीं दिनों हमारे पूज्य भाई साहब परम सन्त डाक्टर श्रीकृष्ण लाल जी भी जयपुर दो बार पधारे तो श्रीमान ने यह पुस्तक उन्हें दिखलाई और अपनी विवशता भी बतलाई कि इसे दुबारा पढ़ कर छूटी हुई किसी बात को पूरा करने में दृष्टि के कारण कुछ असमर्थता आ गई है । श्रीमान भाई साहब आपसे इस पुस्तक को ले गये और फिर इसको प्रकाशित किया । इस पुस्तिका में भी हमारे इस अध्यात्म के लिए सरल शब्दों में मार्गदर्शन किया गया है । रामाश्रम सत्संग सिकन्दराबाद-गाजियाबाद से प्रकाशित यह पुस्तक अभ्यासियों के बहुत काम की है ।


मेरी समझ में जो गूढ़ तत्व इसमें तथा अन्य सन्तों की पुस्तकों, कविताओं, साखियों आदि में लिखे गये हैं उनका बहुतेरा अंश सर्व साधारण की समझ में पूरी तरह नहीं आता । कारण यह है कि अध्यात्म की उस स्थिति तक की बात तो जहाँ हम अपने अभ्यास तथा गुरु कृपा द्वारा पहुँचे हैं समझ में आती है आगे की बात नहीं समझ पाते ।


श्री मुकुंद भारती जी

जैसा बताया जा चुका है श्रीमान के एक सत्संगी गंगा भारती जी महाराज थे । उन्होंने राजगढ़ में आश्रम बनाया । वे पहले एक बावड़ी पर राजगढ़ में एक कोठरी में रहते थे । उनके साथ उनके एक शिष्य मुकुंद भारती रहते थे । डॉ॰ कृष्ण स्वरूप साहब वहाँ पधारे । छंद भारती ने श्रीमान् को सिगरेट पीते देखकर कहा कि “आप इतने बड़े महात्मा होकर सिगरेट पीते हैं ।” श्रीमान हुक्के के लिए कहा करते थे-


     
    “हुक्के को पीना खलल आबरू है
          सुबह होते ही आग की जुस्तजू है
          मगर इसमें बड़ी नेक खू (खासियत) है
          कि खीचों तो अल्लाह फूंको तो हू है ।”


भारती जी की सिगरेट पीने की बात को सुन कर श्रीमान ने सिगरेट का कश खींचा और कहा “अल्लाहू” । यह कहना था मुकुंद भारती “अल्लाहू-अल्लाहू” चिल्लाने लगे । बड़ी देर श्रीमान वहाँ ठहरे । उनका 'अल्लाहू' कहना बंद न हुआ । जब श्रीमान वापस लौटने लगे तो गंगा भारती जी ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि मुकुंद भारती की यही हालत रही तो वह मर जाएगा । श्रीमान् ने अपने बटुए से दो इलायची दाने दिए कि यह खिला दो । दाने खाते ही मुकुंद भारती जी सामान्य हो गए ।


अन्य


श्रीमान फेल्ट के
(टोपी) पहना करते थे । एक सज्जन मिश्री लाल ने गलती से उनका केप पहन लिया क्योंकि उसका केप भी वैसा ही था । जैसे ही वह केप पहन कर बाहर आया उसे पूरा जयपुर जलता हुआ नजर आया । उसकी हालत बदहवास हो गई । घबरा कर पुनः श्रीमान की सेवा में आया तो श्रीमान ने कहा भाई तुम गलती से मेरा केप पहन गए अब कभी ऐसी गलती नहीं करना । एक बार उनके पलंग पर एक बच्चे को गल्ती से सुला दिया गया तो वह बेहोश हो गया ।


आपकी तवज्जह पत्थर तोड़ तवज्जह हुआ करती थी जो दिलों को रेज़ा-रेज़ा कर देती थी । आप एक नजर में अभ्यासी को पूर्ण करने की क्षमता-सामर्थ्य रखते थे ।


आप दूसरों के कष्ट देख कर शीघ्र ही द्रवित होकर रोग खींच लिया करते थे । कभी-कभी स्वयं भी ले लेते थे ।


अन्तिम समय के पूर्व 3-4 माह तक आपने जयपुर में रह कर होमियोपैथिक चिकित्सा करवाई । अन्तिम समय के 20 दिन पूर्व आपको आपके जेष्ठ पुत्र श्री नरेन्द्रमोहन सक्सेना, जो उस समय S.D.M. टोंक थे, टोंक इलाज के लिए ले गए । वहाँ आपकी सेवा, सुश्रूषा व चिकित्सा की अत्यंत सुन्दर व्यवस्था की गई । वहाँ जब आपकी हालत गिरने लगी तो आपने फ़रमाया छगन लाल (आचार्य-जज) व हीरा लाल (वैद्य जी) को बुला लें । इन लोगों को तार दिये गये । ये सब लोग चार दिन पूर्व आपकी सेवा में पहुंच गए । अन्तिम दिनों में आपके अन्दर से गुलाल निरन्तर बरसता था । आपने तवज्जोह देना एक अर्से से बन्द कर दिया था क्योंकि आपकी तवज्जोह कोई बरदाश्त नहीं कर सकता था । जिस कमरे में आपका पलंग बिछा था उसमें अधिक समय तक बैठना संभव न था । आप सदा ब्रह्मलीन रहते थे । आपका शरीर आँख बंद करके देखने पर सारा चमकता दमकता प्रकाशमय नजर आता था । उसमें से प्रकाश पुंज बिखर रहे हैं ऐसा अनुभव होता था ।


अंत समय में कोई 3-4 माह पूर्व आपने खाना-पीना सब त्याग दिया था न खाना खाते थे न पानी या दूध पीते थे । सुबह-शाम चाय की केवल एकएक घूंट मात्र लेते थे । ऐसी हालत में नित्य प्रति सुबह घूमने जाते रहे । चाल इतनी तेज कि कोई साथ न चल सकता था । आखिरी 3 दिन आँखें बन्द करके पलंग पर लेट गए । मगर हर बात का, खासतौर पर पवित्रता का बराबर ख्याल बना रहा । चौबीस घण्टे आँखें बन्द किए प्रार्थना में हाथ चलते रहते, रोम-रोम से अजपा जाप हाथ लगाते ही स्पष्ट सुनाई पड़ता था । इंजेक्शन व दूध को भी बाह्य वस्तु कह कर त्याग दिया । यह सब शरीर शोधन के लिए किया और इच्छा मृत्यु का वरण किया जैसे जैनी लोग संथारा करते हैं । जलाल का यह आलम था कि जिस कमरे में वे लेटे व शरीर त्यागा वहाँ इस क़दर गर्मी थी कि कोई भी 5 मिनट के लिए वहाँ खड़ा नहीं रह सकता था ।


अन्त समय प्रायः सभी सत्संगी बंधु मौजूद ये । उन्होंने इस जलाल को स्वयं अनुभव किया । 19 सितम्बर 58 को एक ज्योति अनन्त ज्योति में विलीन हो गई । ठाकुर मूलसिंह ने उनके शरीर से एक प्रकाशपुंज को ऊपर की ओर धीरे-धीरे जाते स्पष्ट अनुभव किया व उपस्थित लोगों को उस समय दिखाया भी था ।


समाधि

आपकी समाधि फतेहगढ़ में श्रीमान लालाजी महाराज की समाधि के परिसर में है व अत्यन्त पवित्र स्थान है । यहाँ पर बैठ कर श्रीमान की पत्थर तोड़ तवज्जह का बखूबी अनुभव किया जा सकता है । श्रीमान धुर के भेदी थे । आपकी समाधि पर अत्यन्त विनीत भाव से प्रणाम अर्पित कर कृपा की भीख माँगनी चाहिए ।


गुरु भगवान सब का कल्याण करें ।

                                Mahatma Raghuvar Dayal ji               Mahatma Krishna Swaroop ji

​                               ​Dr. Harnarayan Saxena


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